राजनीति की मर्यादा पर “कट्टा” — जब प्रधानमंत्री के शब्दों ने लोकतंत्र की भाषा को घायल कर दिया !

आदेश प्रधान एडवोकेट | बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक बयान राजनीतिक गलियारों में तीखी बहस का विषय बन गया। जब उन्होंने रैली के मंच से कहा कि “आरजेडी ने कांग्रेस के सिर पर कट्टा रखकर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनवाया है”, तो यह वाक्य देशभर में सुर्खियाँ बन गया। यह महज़ एक चुनावी टिप्पणी नहीं थी, बल्कि भारतीय राजनीति में भाषा की मर्यादा के पतन का प्रतीक बनकर उभरा। उस भाषण में प्रधानमंत्री का आशय यह था कि कांग्रेस पार्टी आज अपनी स्वतंत्र पहचान खो चुकी है और सहयोगी दलों की शर्तों पर झुक रही है। परंतु जिस भाषा और उपमा का प्रयोग किया गया, उसने भारतीय लोकतंत्र में संवाद की गुणवत्ता पर गहरे प्रश्न खड़े कर दिए।

राजनीति हमेशा से तर्क, विचार और दृष्टिकोण का मंच रही है। लेकिन बीते कुछ वर्षों में चुनावी सभाओं में प्रयुक्त शब्दावली में अभूतपूर्व गिरावट देखने को मिली है। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, मंत्री, विद्यायक, तक, हर स्तर पर भाषा की मर्यादा तार-तार होती दिख रही है। एक समय था जब नेहरू, पटेल, लोहिया या अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता विरोधियों पर तीखे प्रहार करते थे, मगर शब्दों में शालीनता और आदर्श कायम रखते थे। आज वही राजनीति कटाक्षों, व्यंग्यों और अपमानजनक प्रतीकों का अखाड़ा बन गई है।
नरेंद्र मोदी का “कट्टा” वाला बयान इसी प्रवृत्ति का विस्तार है। भाषाई दृष्टि से यह एक ऐसी उपमा थी जो हिंसात्मक और अपराध से जुड़ी छवि प्रस्तुत करती है। कट्टा—जिसका संबंध अपराधी मानसिकता और डराने-धमकाने के प्रतीक से होता है—जब एक प्रधानमंत्री के मुंह से राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में निकले, तो वह लोकतांत्रिक संवाद के मानदंडों पर चोट करता है। यह सच है कि राजनीति में तीखे बयान चुनावी रणनीति का हिस्सा होते हैं, लेकिन जब शब्द हिंसात्मक प्रतीकों में बदल जाएं, तो वे समाज में नकारात्मक ऊर्जा फैलाते हैं।
प्रधानमंत्री के इस बयान का बचाव करने वालों का कहना है कि यह केवल एक रूपक था—एक राजनीतिक व्यंग्य, जो कांग्रेस की मजबूरी को उजागर करता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति को अपने शब्दों का चुनाव उसी तरह नहीं करना चाहिए, जैसे कोई न्यायाधीश अपने निर्णय का? प्रधानमंत्री के शब्द केवल एक व्यक्ति की राय नहीं, बल्कि संस्थान की भाषा होते हैं। इसलिए जब वे कहते हैं कि “कट्टा रखकर” किसी को निर्णय लेने पर मजबूर किया गया, तो यह न केवल विरोधी दलों का अपमान है, बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श का अवमूल्यन भी है।
इस पूरे विवाद में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भाषा भी चर्चा में रही। बिहार और झारखंड की सभाओं में उन्होंने भी कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन पर “रामद्रोही”, “मुगल मानसिकता” और “कट्टरपंथी समर्थक” जैसे शब्दों का प्रयोग किया। उन्होंने कहा कि “जो राम का नहीं, वो हमारे काम का नहीं।” इस वाक्य ने भी सामाजिक ध्रुवीकरण को हवा दी। इन शब्दों का असर केवल राजनीतिक बहस तक सीमित नहीं रहता, बल्कि समाज की विचारधारा और जनमानस के सोचने के तरीके को प्रभावित करता है।
भारतीय राजनीति में इस समय भाषाई मर्यादा का संकट गहराता जा रहा है। जो नेता जितनी ऊँची कुर्सी पर है, उसकी भाषा उतनी ही सधी और संयमित होनी चाहिए—लेकिन होता इसका उलटा दिख रहा है। भाषा अब संवाद का नहीं, बल्कि आक्रोश और नफरत फैलाने का माध्यम बनती जा रही है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री, दोनों संवैधानिक पद हैं—इन पदों से निकलने वाले शब्द देश के करोड़ों नागरिकों के लिए दिशानिर्देश बन जाते हैं। अगर वही शब्द कटाक्ष, व्यंग्य और हिंसात्मक प्रतीकों से भरे होंगे, तो आम नागरिक भी अपने सामाजिक संवाद में उसी लहजे को अपनाने लगता है।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि “कट्टा” जैसे शब्द अब केवल बयान नहीं, बल्कि वोटों के लिए बनाई गई रणनीति का हिस्सा हैं। जनता की भावनाओं को भड़काने और विरोधी को अपराधी ठहराने का यह एक प्रतीकात्मक तरीका बन चुका है। पहले राजनीतिक पार्टियाँ अपनी विचारधारा के बल पर वोट मांगती थीं, अब भाषा के हथियार से विरोधियों को गिराने की कोशिश करती हैं। इस बदलाव ने लोकतंत्र को एक खतरनाक मोड़ पर ला खड़ा किया है, जहाँ शब्द अब विचार नहीं बल्कि वार बन चुके हैं।
यह भी सच है कि इस भाषा की गिरावट का जिम्मा केवल सत्ताधारी दल पर नहीं डाला जा सकता। विपक्ष भी उसी स्तर की प्रतिक्रिया देता है, जिससे पूरा राजनीतिक संवाद विषैला हो उठता है। जब प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस पर “कट्टा” लगाने का आरोप लगाया, तो जवाब में कई विपक्षी नेताओं ने भी उतनी ही तीखी भाषा का इस्तेमाल किया। किसी ने “तानाशाह” कहा, किसी ने “झूठा”, किसी ने “तानाशाही का चेहरा”। नतीजा यह हुआ कि लोकतंत्र का सबसे पवित्र मंच—जनसभा—अब सभ्यता के बजाय शब्दों की जंग का अखाड़ा बन गया।
राजनीति में भाषा का यह पतन केवल शब्दों तक सीमित नहीं है। यह हमारी लोकतांत्रिक संस्कृति, नैतिकता और संवाद के पूरे तंत्र पर असर डालता है। जिस लोकतंत्र की नींव विचार और संवाद पर रखी गई थी, वहाँ अब शोर और उत्तेजना ने जगह ले ली है। टीवी डिबेट से लेकर सोशल मीडिया तक, हर जगह नेताओं के बयान राजनीतिक विश्लेषण से अधिक ‘ट्रेंडिंग’ विषय बन जाते हैं। और दुर्भाग्य यह है कि जनता भी अब इन बयानों में मनोरंजन खोजने लगी है।
प्रधानमंत्री मोदी के “कट्टा” बयान को यदि एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो यह आज की राजनीति की दिशा का संकेत देता है—जहाँ तर्क और विवेक की जगह प्रतीकों और उपमाओं ने ले ली है। यह उस लोकतंत्र की तस्वीर है जिसमें संवाद नहीं, बल्कि टकराव ज़्यादा बिकता है। प्रधानमंत्री के शब्दों में प्रभाव तो है, पर वह प्रभाव अब प्रेरणा के बजाय विभाजन का माध्यम बन गया है।
अगर राजनीति को फिर से अपने मूल स्वरूप में लाना है तो भाषा को मर्यादा में रखना होगा। प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्रियों तक, हर जनप्रतिनिधि को यह समझना चाहिए कि उनका हर शब्द इतिहास में दर्ज होता है। एक नेता के लिए यह ज़रूरी नहीं कि वह अपने विरोधी से सहमत हो, लेकिन असहमत होते हुए भी गरिमा और शालीनता का पालन किया जा सकता है। महात्मा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेताओं ने यह साबित किया था कि तीखा विरोध भी सुसंस्कृत भाषा में व्यक्त किया जा सकता है।
आज जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि “कांग्रेस पर आरजेडी ने कट्टा रख दिया”, तो यह सिर्फ एक तंज नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श की गिरावट का प्रतीक है। भाषा का यह पतन तब और अधिक खतरनाक हो जाता है जब जनता उसे तालियों से स्वागत करती है। यही वह क्षण है जब राजनीति संवाद से हटकर तमाशा बन जाती है।
अंततः सवाल यही उठता है—क्या सत्ता का शिखर संभालने वाले लोगों को यह अधिकार है कि वे अपनी भाषा में हिंसा और उपहास के प्रतीक भर दें? क्या लोकतंत्र में संवाद की जगह धमकियों और उपमाओं का प्रयोग स्वीकार्य हो सकता है? यदि नहीं, तो इस “कट्टा” वाली राजनीति को अब रोकना ही होगा। क्योंकि जब शब्द हथियार बन जाते हैं, तब लोकतंत्र घायल होता है, और जब मर्यादा मर जाती है, तब समाज विभाजित हो जाता है। यही वह समय है जब हमें याद दिलाना होगा कि भाषा केवल राजनीति का माध्यम नहीं, बल्कि संस्कृति का आईना होती है—और उसका गिरना, पूरे समाज के चरित्र के पतन का संकेत है।
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