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– चंद्रशेखर आजाद के आक्रामक रुख से युवाओं में बढ़ती लोकप्रियता से बढ़ रहा जनाधार
अनुज मित्तल, मेरठ– लोकसभा चुनाव से पहले ही आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद की दलितों में लोकप्रियता बढ़नी शुरू हो चुकी थी। लेकिन जिस तरह उन्होंने अपने दम पर नगीना सीट पर धुरंधर दलों के प्रत्याशियों को पछाड़कर जीत हासिल की, उससे न केवल उनकी लोकप्रियता में इजाफा हुआ है, बल्कि उनका जनाधार भी बढ़ा है। जो कि इस समय सबसे ज्यादा बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के लिए चिंता का विषय बन रहा है।
बात अगर दलित राजनीति की करें तो 90 के दशक तक यूपी में ही नही आसपास के प्रदेशों में भी रामविलास पासवान सार्वमान्य नेता के रूप में पहचान रखते थे। लेकिन इसके बाद वह जहां बिहार तक ही सिमटने लगे, तो यूपी में काशीराम की बहुजन समाज पार्टी के जरिए राजनीति में कदम रखने वाली मायावती ने दलितों पर एकतरफा पकड़ बनानी शुरू कर दी। वर्ष 2000 के आते-आते मायावती यूपी के भीतर दलितों की सर्वमान्य नेता हो गई। अगर ये कहें तो यूपी का 90 प्रतिशत दलित उस वक्त उनके साथ हो गया था, तो गलत नहीं होगा। यही कारण रहा कि 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने चौंकाने वाला चुनाव परिणाम देते हुए यूपी में पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई।
लेकिन इसके बाद उनका ग्राफ धीरे-धीरे गिरना शुरू हो गया। इस बीच भीम आर्मी का गठन कर चंद्रशेखर आजाद दलित राजनीति में सक्रिय हुए और बहुत ही आक्रामक अंदाज में उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। उनके इस आक्रामक अंदाज के कारण पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दलित युवा उनके पीछे चल पड़ा। धीरे-धीरे राजनीति में परिपक्व होते चंद्रशेखर आजाद ने मार्च 2020 में नोएडा में बड़ी जनसभा कर वहां राजनीतिक दल आजाद समाज पार्टी के गठन का ऐलान कर दिया।
इसके बाद भी चंद्रशेखर आजाद का आक्रामक अंदाज कम नहीं हुआ। उन्होंने इस दौरान सियासी नब्ज को पकड़ते हुए दलितों पर जहां अपना पूरा हाथ रखा, तो मुसलमानों को भी अपने करीब लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसका ही परिणाम रहा कि 2024 के लोकसभा चुनाव में नगीना सीट पर चंद्रशेखर आजाद भाजपा, सपा और बसपा प्रत्याशियों को बहुत पीछे छोड़कर बड़े अंतर से जीत हासिल करने में कामयाब रहे।
अब बात करते हैं बहुजन समाज पार्टी की तो इस लोकसभा चुनाव में उन्हें एक भी सीट हासिल नहीं हुई। जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा के दस सांसद निर्वाचित हुए थे। लेकिन इस बार उसका पूरी तरह सुपड़ा साफ हो गया। इसी चिंता में उलझी बसपा सुप्रीमों ने पहली बार विधानसभा उपचुनाव में उतरने का मन बनाते हुए प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। लेकिन चंद्रशेखर आजाद उनकी राह में यहां भी आकर खड़े हो गए हैं। खुद के सांसद निर्वाचित होने के बाद आने वाले विधानसभा चुनाव से पहले के उपचुनावों को ट्रायल मानते हुए चंद्रशेखर रावण भी चुनावी समर अपने ही अंदाज में उम्मीद की किरण देख रहे हैं। खासतौर से वेस्ट यूपी में जब वो प्रचार के लिए निकलते हैं तो उनके तेवर तीखे भी हैं, आक्रामक भी हैं और भावनात्मक भी। वो हर तरीके से जनता के सामने अपनी बात रखते हैं। वो कहते हैं कि वो उनके लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, जिनको आज भी इंसान नहीं माना जा रहा है।
मायावती के सामने चंद्रशेखर इसलिए भी बड़ी चुनौती बन रहे हैं, क्योंकि वें हर दलित मूवमेंट में आगे बढ़कर आते हैं। यही कारण है कि दलित वर्ग में उनकी बढ़ती लोकप्रियता अब मायावती के लिए चिंता का कारण बनने लगी है। बड़ी बात ये है कि जो तेवर और अंदाज चंद्रशेखर आजाद का है, वह अंदाज मायावती के उत्तराधिकारी आकाश आनंद का नहीं है।
बसपा की गिरता वोट प्रतिशत बड़ी चुनौती
बसपा के वोट शेयर की बात करें तो 2007 विधानसभा चुनाव 30.43% था, जो कि 2024 के चुनाव में लगातार गिरते हुए मात्र 9.39% पर पहुंच गया। चंद्रशेखर ने कानपुर की सीसामऊ सीट को छोड़कर बाकी आठ सीटों पर प्रत्याशी उतारे है। दोनों ही पार्टियां चुनाव मैदान में हैं। बसपा जहां लोकसभा चुनाव में अपने खिसके वोटबैंक को फिर से अपने पाले में लाना चाहती है, वहीं लोकसभा चुनाव में मिली जीत और उसके प्रत्याशियों को मिले समर्थन से उत्साहित चंद्रशेखर दलित राजनीति का नया चेहरा बनना चाहते हैं। देखने वाली बात होगी कि दलित सियासत में इस नए मोड़ से निपटने के लिए बसपा सुप्रीमों मायावती क्या नई चाल चलती हैं। क्या आकाश आनंद को नए तेवर नए कलेवर के साथ उतारा जाता है या फिर मायावती खुद ही सियासत के इस भंवर क सामना अपने अंदाज में करेंगी।