– 2009 में भाजपा के साथ गठबंधन में जीती थी लोकसभा की पांच सीट – इसके बाद रालोद को नसीब नहीं हुआ दिल्ली का रास्ता
अनुज मित्तल (समाचार संपादक)
मेरठ। राष्ट्रीय लोक दल के लिए लोकसभा में 2009 के बाद से सूखा चल रहा है। सपा, बसपा और कांग्रेस से गठबंधन के बाद भी रालोद को कोई फायदा नहीं हुआ। यह बात अलग है कि इन दलों को रालोद के बूते जरूर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों पर जीत हासिल हुई हैं। ऐसे में साफ है कि रालोद को सिर्फ भाजपा का साथ ही सुहाता है। अब एक बार फिर दोनों दल पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खोई हुई सीटों को फिर से पाने की कवायद में एकजुट हो गए हैं।
राष्ट्रीय लोकदल ने 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा से गठबंधन किया था। तब भाजपा ने रालोद को सात सीटें दी थी और इनमें पांच सीटों पर रालोद ने जीत हासिल की थी। अहम बात ये रही कि चौ. जयंत सिंह का भी सक्रिय राजनीति में आगमन इसी वर्ष में हुआ और वह मथुरा सीट से सांसद चुने गए।
भाजपा से गठबंधन करके रालोद ने वर्ष 2009 के चुनाव में बागपत सीट जहां से चौ. अजित सिंह जीते थे, उनके साथ ही बिजनौर से संजय सिंह चौहान, अमरोहा से देवेंद्र नागपाल और हाथरस सुरक्षित सीट से सारिका सिंह विजयी हुए थे।
2014 में रालोद का गठबंधन कांग्रेस के साथ था। लेकिन इस गठबंधन का कोई फायदा नहीं हुआ। मोदी की आंधी में कांग्रेस खुद जहां दो सीटों पर सिमट गई, वहीं रालोद को एक भी सीट नसीब नहीं हुई।
2019 में यूपी के भीतर नया गठबंधन बना, जो कागजों में बेहद मजबूत नजर आ रहा था। इस गठबंधन में रालोद, सपा और बसपा थे। जबकि कांग्रेस अकेले चुनाव मैदान में थी। इस गठबंधन के सहारे बसपा दस और सपा पांच सीट जीतने में सफल रही, लेकिन रालोद को एक भी सीट नसीब नहीं हुई। बागपत से स्वयं चौ. जयंत सिंह और मुजफ्फरनगर से चौ. अजित सिंह चुनाव हार गए।
इस बार आईएनडीआईए के रूप में देश में महागठबंधन बना। जिसमें रालोद भी शामिल था। लेकिन यूपी में समाजवादी पार्टी ने खुद को ड्राइविंग सीट पर रखते हुए एक तरफ जहां बसपा को दरकिनार कर दिया, वहीं अपने मनमाने रवैये से सीटों का बंटवारा भी कर दिया। पूर्व के चुनावों में हुए नफा नुकसान को देखते हुए रालोद अध्यक्ष चौ. जयंत सिंह ने इस बार सपा का दामन छोड़कर भाजपा के साथ जाने में ही भलाई समझी।
भाजपा को मिली अतिरिक्त ताकत
वर्ष 2014 के चुनाव में मुजफ्फरनगर दंगे का असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पूरी तरह हावी था, इसके साथ ही मोदी की लहर भी चरम पर थी। जिसका परिणाम ये हुआ कि जाट वोट रालोद से खिसक गया और भाजपा पर ट्रांसफर हो गया। इसी के चलते रालोद को एक भी सीट नहीं मिली। इसके बाद चौ. जयंत सिंह और चौ. अजित सिंह ने जाट मतदाताओं के बीच पैठ बनानी शुरू की, लेकिन वह दूसरी बिरादरियों के मतदाताओं को अपनी तरफ नहीं मोड़ पाए और सपा के साथ का नुकसान भी रालोद को झेलना पड़ा। जिस कारण 2019 के चुनाव में भी रालोद मात खा गया। इस हार के बाद चौ. अजित सिंह जहां शांत बैठ गए, वहीं चौ. जयंत सिंह ने कमान अपने हाथों में ले ली। उन्होंने सबसे पहले युवाओं को अपनी तरफ जोड़ा। इसका परिणाम भी 2022 के विधानसभा चुनाव में नजर आया और जाट वोटर रालोद के तरफ मजबूती से जुड़ा नजर आ रहा है।
जाट बिरादरी में रालोद की बढ़ती ताकत कहीं न कहीं भाजपा के लिए खतरे की घंटी बनती जा रही थी। इस हालात में भाजपा को पश्चिमी की लगभग 15 सीटों पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता। लेकिन अब गठबंधन के बाद भाजपा ने भी राहत की सांस ली है।