सनातन संस्कृति और किसानों की आस्था का संगम : गढ़ गंगा मेला

आकाश कुमार, मेरठ। भारत भूमि को मेले, पर्व और उत्सवों की धरती कहा जाता है, यहाँ प्रत्येक त्यौहार केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं, बल्कि जीवन, श्रम और संस्कृति की अनुभूति से जुड़ा होता है, उत्तर प्रदेश के जनपद हापुड़ के अंतर्गत स्थित गढ़ मुक्तेश्वर का प्रसिद्ध गढ़ गंगा मेला भी ऐसा ही उत्सव है, जहाँ कृषक संस्कृति और आस्था का अद्भुत संगम देखने को मिलता है, यह मेला एक ओर जहाँ सनातन परंपरा और श्रद्धा की धारा को जीवित रखता है, वहीं दूसरी ओर यह ग्रामीण जीवन, कृषि संस्कृति और भारतीय समाज की जड़ों का प्रतीक भी है ।

इस मेले की पौराणिक महत्ता के अनुरुप गढ़ मुक्तेश्वर, जिसे प्राचीन काल में “मुक्ति तीर्थ” कहा गया है, का उल्लेख महाभारत और श्रीमद्भागवत पुराण जैसे ग्रंथों में मिलता है, पौराणिक मान्यता के अनुसार, भगवान श्रीराम ने यहाँ अपने पूर्वजों का पिंडदान किया था, इसलिए इसे मुक्ति प्रदायिनी गंगा का तीर्थ कहा गया, यह स्थल हस्तिनापुर से निकटता के कारण भी ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है। गढ़ मुक्तेश्वर में प्रवाहित गंगा का यह तट केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक है, कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर यहाँ स्नान करने से पापों का नाश और मोक्ष की प्राप्ति होती है, यही विश्वास सदियों से लोगों को यहाँ खींच लाता है।
हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के पावन अवसर पर जब गंगा की लहरें शरद की चाँदनी में झिलमिलाती हैं, तब लाखों श्रद्धालु दूर-दूर से गढ़ मुक्तेश्वर पहुँचते हैं। गंगा स्नान, दीपदान और पितरों का तर्पण इस पर्व का मुख्य आकर्षण हैं, पौराणिक काल से चली आ रही यह परंपरा आज भी उतनी ही जीवंत है, यह मेला धार्मिक आस्था के साथ-साथ सामाजिक मेलजोल, व्यापार और सांस्कृतिक एकता का भी प्रतीक बन चुका है, यह मेला बताता है कि भारत में किसान केवल अन्नदाता नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और समाज के संवाहक भी हैं।
यह मेला केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि कृषक जीवन का उत्सव है, क्योंकि यह मेला उस समय लगता है जब किसान अपनी खरीफ फसल काट चुका होता है और रबी की बुआई की तैयारी करता है, यह समय उसके लिए श्रम के बाद विश्राम और उल्लास का होता है, इसीलिए वह परिवार सहित मेले में भाग लेता है, यह केवल मनोरंजन और व्यापार का नहीं, बल्कि किसान संगम होने के नाते विभिन्न क्षेत्रों से आये किसानों के लिये एक दूसरे के अनुभव आदान प्रदान करने का मंच भी है, किसान यहाँ एक-दूसरे से खेती-बाड़ी के नए तरीकों, बीजों और कृषि उपकरणों के बारे में जानकारी साझा करते हैं ।

कार्तिक माह में पूर्णिमा से पूर्व सप्ताह भर गंगा किनारे सजने वाला यह मेला एक अलग पहचान इसलिये भी रखता है क्योंकि इस मेले में दूर दराज से आने वाले श्रद्धालु इन दिनों में सभी अपने अपने डेरे, टैंट सजाकर गंगा किनारे रहते हैं, रोजाना सुबह माँ गंगा के दर्शन और स्नान करना इसकी आस्था को और अधिक प्रगढ़ बनाता है, इन दिनों में गंगा तट पर श्रद्धालुओं का स्नान और व्यापारिक चहल-पहल होती है, तो रात में लोकगीत, भजन, रामलीला, नौटंकी के प्रदर्शन से वातावरण गुंजायमान रहता है, ये लोक कलाएँ केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि हमारे समाज की भावनात्मक एकता और सामूहिक चेतना का प्रतीक हैं, गंगा तट पर जलते दीपों की कतारें आस्था का वह प्रकाश फैलाती हैं जो समाज को एक सूत्र में बाँधती हैं ।
इस मेले को यदि व्यापार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दृष्टि से देखा जाये तो यह मेला ग्रामीण अर्थव्यवस्था और स्थानीय व्यापार का भी प्रमुख केंद्र है।
यहाँ लगने वाली असंख्य दुकानों पर कृषि उपकरण, कपड़े, आभूषण, खिलौने, लकड़ी और मिट्टी के शिल्प बिकते हैं, यह न केवल स्थानीय कारीगरों और व्यापारियों को आर्थिक संबल देता है, बल्कि ग्रामीण उद्यमिता को भी प्रोत्साहित करता है, यह मेला इस तथ्य का साक्षी है कि भारत की अर्थव्यवस्था की धड़कन अब भी गाँवों और खेतों में बसती है, जहाँ श्रम, कौशल और संस्कृति एक साथ फलते-फूलते हैं, वास्तव में यह मेला भारतीय लोक संस्कृति और ग्रामीण जीवन की सजीव झांकी प्रस्तुत करता है ।
भारतीय संस्कृति में गंगा केवल नदी नहीं, बल्कि माँ के रूप में पूजनीय है, गढ़ गंगा मेला इसी भाव को साकार करता है, जहाँ मनुष्य, जल, भूमि और प्रकृति के बीच सामंजस्य का अनुभव होता है, परंतु यह मेला केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, यह एक ऐसा अवसर है जब समूचा ग्रामीण समाज एकत्र होता है, अपनी परंपराओं को जीता है, और अपनी संस्कृति का प्रदर्शन करता है, यह मेला बताता है कि भारत की वास्तविक पहचान उसकी मिट्टी, मेहनत और संस्कृति में बसती है, यहाँ गंगा की पवित्र धारा, किसान का पसीना और श्रद्धालुओं की आस्था तीनों मिलकर भारतीय सभ्यता की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
यह पवित्र संगम और आस्था का केंद्र सदैव जीवंत, स्वच्छ और प्रेरणादायी बना रहे क्योंकि इस मेले के समय लाखों श्रद्धालु एकत्र होते हैं, इस समय प्रशासन को जनसुरक्षा, भीड़-नियंत्रण और यातायात व्यवस्था को सशक्त ढंग से संभालना पड़ता है, गंगा घाटों पर स्नान के दौरान भगदड़, डूबने की घटनाएँ या किसी प्रकार की अव्यवस्था न हो, इसके लिए पुलिस, एनडीआरएफ, गोताखोर दल और स्वास्थ्यकर्मी लगातार चौकसी में रहते हैं, दूसरी तरफ साफ-सफाई, स्वच्छ पेयजल, कचरा निस्तारण, सीवेज नियंत्रण और प्लास्टिक जिससे अपशिष्ट प्रबंधन और नदी की स्वच्छता बड़ी चुनौती बन जाती है, इस दिशा में शासन के साथ सामुदायिक सहभागिता से श्रद्धालु, स्वयंसेवी संगठन और स्थानीय निकाय भी सहयोग करें तो यह मेला केवल आस्था का नहीं, बल्कि पर्यावरण चेतना का भी एक आदर्श वैश्विक उदाहरण बन सकता है ।
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