चौधरी चरणसिंह : किसानों की पुकार, भारत की चेतना—
एक युगदृष्टा, जो खेत से संसद तक किसान के साथ खड़ा रहा-

आदेश प्रधान एडवोकेट | भारत की आत्मा और किसान का मर्म –जब भी भारत की आत्मा की बात होती है, तो उसकी गूंज खेतों से सुनाई देती है, बैलों की जोड़ी की थाप में मिलती है और किसान के हाथों की दरारों में झलकती है। भारत की सच्ची पहचान उसकी कृषि पर आधारित ग्रामीण संस्कृति में है। और जब भारतीय किसान की बात होती है, तो एक नाम उजियारा बनकर उभरता है — चौधरी चरण सिंह।
वे केवल एक राजनेता नहीं थे, बल्कि एक विचार, एक आंदोलन, और एक चेतना थे। उन्होंने नारा नहीं दिया, नीति बनाई; उन्होंने संघर्ष किया, समाधान दिया। चौधरी साहब ने अपने जीवन का हर क्षण ग्रामीण भारत की पीड़ा को दूर करने में लगाया। सत्ता उनके लिए साधन थी, लक्ष्य नहीं।
उनका स्पष्ट और दो टूक संदेश था
“जब तक किसान की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होगी, तब तक भारत की प्रगति केवल एक छलावा होगी।”
किसान के घर जन्मे, किसान के पक्षधर
चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर 1902 को उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले के नूरपुर गाँव में एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। वे खुद कहते थे कि “मैंने बैल की पीठ पर चाबुक की मार देखी है, इसलिए नीति की कलम चलाने से पहले मुझे किसान की पीड़ा महसूस होती है।”
बचपन से ही खेतों, फसलों, सूखे और कर्ज़ के चक्रव्यूह से उनका परिचय था। उन्होंने मेरठ कॉलेज और आगरा विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की, पर वकालत में उनका मन नहीं लगा। उनके भीतर कुछ और था – एक बेचैनी, एक आग – जो उन्हें राजनीति की ओर ले गई, लेकिन वो राजनीति जिसे उन्होंने किसानों की मुक्ति का औजार बनाया।
किसानों की आवाज़ संसद तक पहुंचाई-
1937 में पहली बार वे उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने। धीरे-धीरे वे मंत्री बने, लेकिन कुर्सी पर बैठकर भी उनका ध्यान खेत की ओर ही लगा रहता। उन्होंने कृषि, भूमि सुधार और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर अनेक बार गंभीर चर्चाएं कीं।
उनका प्रसिद्ध कथन था “जिस देश में 70 प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर हैं, वहां अगर किसान भूखा है, तो यह सरकार की असफलता नहीं, अपराध है।”
चौधरी साहब ने सत्ता में रहते हुए भी कभी सत्ता के सामने किसानों की बात कहने से परहेज नहीं किया। उनके भाषणों में पीड़ा भी थी, और नीति की परिपक्वता भी।
ज़मींदारी उन्मूलन – एक ऐतिहासिक क्रांति
1949 में उत्तर प्रदेश के राजस्व मंत्री के रूप में उन्होंने ज़मींदारी उन्मूलन अधिनियम लागू करवाया – यह स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े और प्रभावशाली भूमि सुधारों में से एक था। उन्होंने कहा था “जिसके हाथ में हल है, ज़मीन भी उसी की होनी चाहिए।”
इस कानून ने लाखों किसानों को ज़मीन का मालिक बनाया और वर्षों से चली आ रही भूमि असमानता को तोड़ने का काम किया।
इसके साथ-साथ उन्होंने भूमि सीलिंग, सहकारी संस्थाओं को सशक्त बनाने, सिंचाई योजनाओं के विकेंद्रीकरण, और कृषि ऋण व्यवस्था के सरलीकरण जैसे अनेक कदम उठाए। चौधरी साहब को न केवल किसानों का मसीहा कहा गया, बल्कि उन्हें “भारत के भूमि सुधारों का जनक” भी माना गया।
गांधीवादी आर्थिक दृष्टिकोण
जब देश में नेहरू युग के प्रभाव में औद्योगिक विकास को ही राष्ट्र की उन्नति का आधार माना जा रहा था, तब चौधरी चरण सिंह ने गांधीवादी आर्थिक मॉडल की ज़ोरदार वकालत की। उन्होंने ‘India’s Economic Policy – The Gandhian Blueprint’ नामक पुस्तक में लिखा”भारत की आत्मा गांवों में बसती है। हमें मशीनों से नहीं, मनुष्यों से समृद्ध होना है।”
उन्होंने कहा कि यदि भारत को सही मायनों में विकास करना है, तो उसे गांवों में सड़क, स्कूल, अस्पताल, बिजली और मंडियां देनी होंगी, न कि केवल महानगरों में चमकते टावर।
प्रधानमंत्री बनकर भी किसानों के लिए ही जिए–
1979 में जब चौधरी चरण सिंह भारत के प्रधानमंत्री बने, तो उनके पास सीमित समय था, लेकिन स्पष्ट दृष्टि थी। उन्होंने प्रधानमंत्री बनने को सत्ता की विजय नहीं, बल्कि किसानों की आवाज़ को राष्ट्रीय मंच पर पहुंचाने का माध्यम माना।
उनके नेतृत्व में कृषि ऋण माफी, समर्थन मूल्य की वृद्धि, ग्रामीण बैंकों का विस्तार, और सहकारी समितियों को वित्तीय सहायता जैसे महत्वपूर्ण निर्णय लिए गए। उन्होंने साफ कहा कि “अगर दिल्ली में बैठकर योजनाएं बनेंगी, लेकिन खेत में पसीना बहाने वाले की आवाज़ उनमें नहीं होगी, तो ऐसी योजनाएं केवल आंकड़ों में सफल रहेंगी, ज़मीन पर नहीं।”
किसानों पर उनके प्रेरक भाषण
चौधरी साहब के भाषण केवल राजनीतिक नारे नहीं थे, वे किसानों की आत्मा का दस्तावेज़ थे। उनके भाषणों में व्यवस्था के प्रति नाराज़गी तो थी ही, लेकिन साथ ही एक सशक्त समाधान का दर्शन भी था
“भारत का किसान सबसे ईमानदार, सबसे मेहनती और सबसे सहनशील प्राणी है। लेकिन इस राष्ट्र ने उसे केवल शोषण, अपमान और उपेक्षा दी है। जो हाथ देश का पेट भरते हैं, उन्हें ही सबसे कम भोजन मिलता है।”
उनके शब्दों में क्रांति की चिंगारी थी और नीति का निचोड़ भी।
सामाजिक समीकरणों के चतुर संयोजक -चौधरी चरण सिंह केवल किसान नेता नहीं थे, वे भारत के सामाजिक ताने-बाने को भी समझते थे। उन्होंने जाट, ओबीसी, दलित, मुस्लिम और अन्य पिछड़ी जातियों को एक मंच पर लाकर एक ऐसा राजनीतिक गठबंधन खड़ा किया जो आने वाले दशकों की राजनीति को दिशा देने वाला बना।
उनका उद्देश्य केवल जातिगत गोलबंदी नहीं था, बल्कि वर्गीय न्याय को स्थापित करना था। “मैं ब्राह्मणवादी व शहरी–उद्योग समर्थक नीतियों का विरोध इसलिए करता हूं, क्योंकि वे ‘असली भारत’ की उपेक्षा करती हैं, जो गांव में रहता है।”
उन्होंने गुर्जर, यादव, कुर्मी, मौर्य, लोहार, निषाद जैसे कई वर्गों को प्रतिनिधित्व देकर OBC राजनीति की नींव रखी।
किसान दिवस – श्रद्धांजलि या औपचारिकता? भारत सरकार ने चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन को राष्ट्रीय किसान दिवस घोषित किया है। यह सम्मान उचित है, पर क्या यह पर्याप्त है?
क्या हम सच में उनकी नीतियों को अपनाते हैं? क्या हर साल एक फोटो, एक पुष्पांजलि और भाषण ही उनका स्मरण है?
यदि चौधरी साहब को सच्ची श्रद्धांजलि देनी है, तो यह सुनिश्चित करना होगा कि: गांवों में डॉक्टर हों,स्कूलों में शिक्षक हों,खेतों में पानी हो,और किसान को उसकी फसल का सही मूल्य मिले ।
आज के भारत में चरण सिंह क्यों ज़रूरी हैं? -जब किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य, जल संकट, निजीकरण और भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दों से जूझ रहा है; जब हर साल हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं; और जब कृषि पर कॉरपोरेट नियंत्रण का खतरा मंडरा रहा है – तब चौधरी चरण सिंह का चिंतन और चेतावनियाँ पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गई हैं। “अगर किसान को न्याय नहीं मिलेगा, तो वह चुप नहीं बैठेगा। वह उठेगा, और तब केवल खेत नहीं, संसद तक किसानों की आवाज को पहुँचया
उनकी यह भविष्यवाणी 2020-21 के ऐतिहासिक किसान आंदोलन में पूर्णतः सत्य सिद्ध हुई। हजारों किसान दिल्ली की सीमाओं पर टिके रहे, और अंततः सरकार को तीन कृषि कानून वापस लेने पड़े।
चौधरी चरण सिंह – नैतिक शक्ति का प्रतीक
राजनीति में विचार मर जाते हैं, केवल दल रह जाते हैं। लेकिन चौधरी चरण सिंह का विचार आज भी जीवित है क्योंकि वह दल से नहीं, देश से जुड़ा था। उनका एकमात्र धर्म था – किसान का कल्याण।
वे कोई वंश नहीं छोड़ गए, कोई पार्टी नहीं बना गए, लेकिन उन्होंने एक ऐसी विचारधारा छोड़ी जो आज और आने वाले समय की आवश्यकता बन गई है । संसद में बैठकर भी आप खेत की बात कर सकते हैं, और प्रधानमंत्री होकर भी गांव के आदमी रह सकते हैं।
एक युगदृष्टा की विरासत-उनका जीवन सिखाता है कि राजनीति केवल सत्ता की यात्रा नहीं, सेवा की साधना होनी चाहिए। उन्होंने सत्ता का उपभोग नहीं किया, उसका उपयोग किया।
वे प्रधानमंत्री बने, पर गांव के प्रधान जैसे रहे। दिल्ली में बैठे, पर दिल हमेशा खेत में धड़कता रहा।
आज जब भारत आर्थिक विकास के आंकड़ों पर गर्व कर रहा है, तब हमें चौधरी साहब की यह चेतावनी नहीं भूलनी चाहिए
“जब तक किसान की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होगी, तब तक भारत की प्रगति केवल एक छलावा होगी।”
उन्हें स्मरण नहीं, उनके विचारों को अपनाना होगा
चौधरी चरण सिंह केवल एक नेता नहीं, भारत की कृषि चेतना के जीवंत प्रतीक थे। वे किसान के प्रतिनिधि नहीं, उसकी आत्मा थे। उनकी नीतियाँ केवल सरकारी फाइलों में नहीं, ज़मीन पर उतरें — यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
आज भी जब खेत सूखते हैं, फसलें बिक नहीं पातीं, और किसान कोर्ट-कचहरी में उलझा होता है — तो कहीं न कहीं चरण सिंह की आत्मा हमें टोकती है:
“क्या यह वही भारत है, जिसके लिए मैंने संघर्ष किया था?”
चौधरी चरण सिंह –जो किसानों की पुकार बनकर जिए,और भारतीय लोकतंत्र को एक नैतिक दिशा देकर गए । 29 मई, 1987 को 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। किसानों का चिराग हमेशा के लिए बुझ गया । चौधरी साहब के विचारों को जीवन मे आत्मसात करने की जरूरत है । यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
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