Thursday, June 26, 2025
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जाति है कि जाती ही नहीं

जाति है कि जाती ही नहीं

– मितेन्द्र गुप्ता

मितेन्द्र गुप्ता | भारत सदियों से विविधताओं का देश रहा है भाषा, धर्म, संस्कृति और परंपराएं यहां की पहचान हैं। परंतु इन विविधताओं में एक कटु सच्चाई यह भी है कि सामाजिक भेदभाव की एक गहरी और पुरानी कड़ी ने हमारे समाज की नींव को जकड़ रखा है वह है जाति व्यवस्था। यद्यपि संविधान ने सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया है, फिर भी व्यवहारिक धरातल पर यह समानता आज भी अधूरी है। जाति, जो कभी वर्ण व्यवस्था के नाम पर सामाजिक संगठन का आधार मानी गई, आज सामाजिक शोषण और अपमान की एक भयावह कड़ी बन चुकी है। हाल ही में उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में एक घटना घटी जिसने एक बार फिर हमारे समाज की जातिगत संकीर्णताओं को उजागर कर दिया। एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति को केवल इसलिए अपमानित किया गया, उसका सिर मुंडवाया गया और महिला मूत्र छिड़का गया।

क्योंकि वह भागवत कथा कह रहा था और कथित रूप से ब्राह्मणह्व नहीं था। यह न केवल अमानवीय व्यवहार है, बल्कि उस मानसिकता का जीवंत उदाहरण भी है जो आजादी के 75 से अधिक वर्षों बाद भी जाति की दीवारों को गिरने नहीं देना चाहती।

 

 

जाति व्यवस्था की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : जाति व्यवस्था का आधार मूलत: वर्ण व्यवस्था थी, जो कर्म आधारित थी—ब्राह्मण (ज्ञान देने वाला), क्षत्रिय (रक्षक), वैश्य (व्यापारी) और शूद्र (सेवक)। यह विभाजन कालांतर में जन्म आधारित हो गया और समाज ने इसे धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक रूप में स्वीकार कर लिया। जातियां सैकड़ों वर्षों तक न केवल सामाजिक पहचान का माध्यम बनी रहीं, बल्कि शोषण का एक औजार भी बन गईं। निचली जातियों को मंदिरों में प्रवेश की अनुमति नहीं थी, उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया, और उन्हें अपवित्र माना गया।

समाज में दलितों और पिछड़ों के साथ हो रहा भेदभाव : इटावा की घटना कोई अपवाद नहीं है, बल्कि उन हजारों घटनाओं में से एक है जो भारत के विभिन्न कोनों में आए दिन घटती रहती हैं। दलितों को आज भी कुओं से पानी भरने से रोका जाता है, उनके हाथों का भोजन नहीं खाया जाता, और पंचायतों में उन्हें मुखिया बनने पर प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। जातिगत हिंसा, दुराचार और सामाजिक बहिष्कार जैसी घटनाएं नियमित रूप से रिपोर्ट होती हैं।

ब्राह्मणत्व: जाति नहीं, गुण है : इटावा की घटना में यह सवाल भी उभरता है कि क्या ह्लब्राह्मणह्व होना केवल जन्म से निर्धारित होता है? भारतीय दर्शन और शास्त्रों के अनुसार नहीं। भगवद गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश: (अर्थात मैंने चार वर्णों की रचना गुण और कर्म के आधार पर की है।) इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो ब्राह्मण वह है जिसमें ज्ञान, सत्य, करुणा, संयम और तप जैसे गुण हैं।

राजनीति और जाति: एक जटिल रिश्ता जाति आज राजनीति का सबसे शक्तिशाली औजार बन चुकी है। राजनेता जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए टिकट बांटते हैं, चुनाव प्रचार करते हैं, और सरकारें बनती-बिगड़ती हैं। दलित, पिछड़ा, अगड़ा ये सभी शब्द वोट बैंक बन चुके हैं। चुनावी मौसम में जाति आधारित नारों और घोषणाओं की भरमार देखने को मिलती है। यह वर्गीकरण समाज में विभाजन को और गहरा करता है। राजनेता जातिगत भेदभाव को समाप्त करने की इच्छा से ज्यादा, जातिगत पहचान को बनाए रखने में रुचि रखते हैं, क्योंकि यही उनकी राजनीतिक पूंजी है।

क्या आरक्षण ही समाधान है : जातिगत अन्याय के समाधान के रूप में आरक्षण व्यवस्था को लागू किया गया था ताकि सदियों से वंचित समुदायों को अवसर मिल सके। आरक्षण का उद्देश्य किसी जाति को ऊपर उठाना नहीं, बल्कि समान अवसर उपलब्ध कराना है। जब तक समाज में असमानता है, आरक्षण की आवश्यकता बनी रहेगी।

लेकिन केवल आरक्षण से जातिवाद नहीं मिटेगा। इसके लिए शिक्षा, जागरूकता, और सामाजिक संवाद की आवश्यकता है। सामाजिक चेतना की आवश्यकता जातिवाद एक मानसिक रोग है, जिसका इलाज केवल कानून या सरकारी योजनाओं से नहीं किया जा सकता। इसके लिए समाज को स्वयं जागरूक होना होगा। मीडिया, साहित्य, शिक्षा और सामाजिक अभियानों को जातिवाद के खिलाफ मोर्चा खोलना होगा।

न्यायपालिका और संविधान की भूमिका : भारत का संविधान जातिवाद के खिलाफ स्पष्ट रूप से खड़ा है। अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के साथ धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। साथ ही अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है और इसे कानूनन अपराध घोषित करता है। हालांकि, कानून बनाने से ज्यादा जरूरी है उनका सही क्रियान्वयन। इटावा जैसी घटनाओं में दोषियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई होनी चाहिए ताकि समाज को यह संदेश जाए कि किसी भी जाति के व्यक्ति का अपमान, पूरे संविधान का अपमान है।
जाति एक सामाजिक संरचना है, जो अब शोषण का साधन बन गई है। इटावा की घटना इस बात का प्रमाण है कि यह कुरीति अभी भी समाज की रग-रग में जमी हुई है। आज आवश्यकता है कि हम एक नए सामाजिक अनुबंध की ओर बढ़ें, जिसमें हर व्यक्ति को उसकी जाति नहीं, उसकी मानवता के आधार पर सम्मान मिले। अगर अब भी हम नहीं जागे, तो हम एक ऐसे भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं जहां विकास तो होगा, पर इंसानियत पिछड़ जाएगी।

 

नोट: संपादकीय पेज पर प्रकाशित किसी भी लेख से संपादक का सहमत होना आवश्यक नही है ये लेखक के अपने विचार है।

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