चाटुकारिता, मानसिक गुलामी और ब्रांडिंग की संस्कृति।

मितेन्द्र गुप्ता | भारतीय समाज हमेशा से विचार, विवेक और विविधता के लिए जाना गया है। हमारी परंपरा में असहमति का स्थान रहा है, बहस का सम्मान रहा है, और स्वतंत्र सोच को प्रतिष्ठा प्राप्त रही है। लेकिन बीते एक दशक में इस स्थिति में एक विचित्र परिवर्तन देखा गया है। अब स्वतंत्र सोच की जगह अंधभक्ति ने ले ली है, विचार की जगह प्रचार और विवेक की जगह चाटुकारिता ने कब्जा कर लिया है।आज का समाज एक ऐसी मानसिकता में बदलता जा रहा है जिसमें लोग अपनी बात कहने से डरते हैं, सच से आंखें चुराते हैं और दिखावे को ही सत्य मान लेते हैं।
चाटुकारिता: स्वार्थ और सत्ता की संगति : चाटुकारिता, यानी सत्ता के आगे घुटनों पर बैठ जाना झ्र यह प्रवृत्ति कोई नई नहीं है। इतिहास में यह दरबारी संस्कृति का हिस्सा रही है, जहां राजा के हर शब्द को ईश्वर-वाणी समझकर तालियां बजाई जाती थीं। लेकिन उस समय वह केवल सत्ता से जुड़े कुछ विशेष व्यक्तियों तक सीमित थी। आज की दुनिया में चाटुकारिता ने हर क्षेत्र में अपने पैर फैला लिए हैं। राजनीति, मीडिया, फिल्म, शिक्षा, नौकरशाही और यहां तक कि आम जीवन में भी इसका असर दिखाई देता है। अब जो भी सत्ता या प्रभाव के करीब है, उसकी तारीफ में कसीदे पढ़ना एक सामान्य बात हो गई है, चाहे वह तारीफ तर्क और सच्चाई से कोसों दूर क्यों न हो। लोगों ने अपने व्यक्तिगत विवेक को ताक पर रख दिया है और सच्चाई की जगह सुविधा की चाटुकारिता को अपनाना शुरू कर दिया है। यह प्रवृत्ति केवल दूसरों को फायदा पहुंचाने तक सीमित नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे आत्मसम्मान और सत्य के प्रति प्रतिबद्धता को खत्म कर रही है।
मानसिक गुलामी: नई पीढ़ी का नया बंधन : चाटुकारिता से एक कदम आगे है मानसिक गुलामी। यह वह स्थिति है जब व्यक्ति अपनी सोच, विवेक और चेतना को किसी और के हवाले कर देता है। वह वही सोचता है जो उसे सोचने के लिए कहा जाता है, वही बोलता है जो उसे बोलने के लिए सिखाया जाता है। मानसिक गुलामी का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि यह धीरे-धीरे व्यक्ति को इतना निष्क्रिय बना देती है कि वह सच्चाई और झूठ में फर्क करने की क्षमता खो बैठता है।
ब्रांडिंग की संस्कृति: विचारों का व्यवसायीकरण : पिछले कुछ वर्षों में समाज में एक और खतरनाक प्रवृत्ति देखी गई है झ्र हर चीज को ब्रांड बनाकर बेचना। पहले उत्पाद बिकते थे, अब विचार, नेता, आंदोलन, यहाँ तक कि राष्ट्रवाद और धर्म तक को एक ब्रांड की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है। ब्रांडिंग का मूल उद्देश्य होता है झ्र छवि बनाना। और जब किसी व्यक्ति या विचार को केवल छवि के आधार पर प्रस्तुत किया जाता है, तब सत्य, तर्क और यथार्थ पीछे छूट जाते हैं। लोग काम नहीं देखते, चेहरा देखते हैं; परिणाम नहीं देखते, प्रचार देखते हैं। इस ब्रांडिंग की दौड़ में वास्तविक मुद्दे झ्र जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार झ्र सब पीछे छूट जाते हैं। आगे रहता है सिर्फ चमक-दमक, बड़े-बड़े पोस्टर, सोशल मीडिया कैंपेन और फर्जी आंकड़े।
मीडिया और सोशल मीडिया: एक निष्पक्ष मंच से प्रचार के औजार तक मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, लेकिन आज उसका एक बड़ा हिस्सा सत्ता का प्रवक्ता बनकर रह गया है। अब मीडिया का काम सच्चाई दिखाना नहीं, बल्कि छवि चमकाना हो गया है। जिन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए, वे दबा दिए जाते हैं। जो असहज सवाल उठाए जाने चाहिए, वे गायब कर दिए जाते हैं। सोशल मीडिया ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया है। यह अब विचारों का मंच नहीं, ब्रांडिंग का बाजार बन गया है। यहां झूठ तेजी से फैलता है, असहमति को ट्रोल किया जाता है, और सच बोलने वालों को देशद्रोही तक कह दिया जाता है।
जनमानस की स्थिति: भ्रमित और दिशाहीन : सामान्य जनमानस की स्थिति अत्यंत विचलित करने वाली है। लोग अब सही और गलत में फर्क नहीं कर पा रहे हैं। उन्हें जो दिखाया जाता है, वे वही मान लेते हैं। आलोचना को ‘नकारात्मकता’ कहकर खारिज कर दिया जाता है। सत्य को ह्यफेक न्यूजह्ण घोषित कर दिया जाता है। लोगों ने आत्मनिरीक्षण करना छोड़ दिया है। वे दूसरों की सोच पर विश्वास करने लगे हैं। उन्होंने सवाल उठाना छोड़ दिया है क्योंकि सवालों के जवाब अब विचार नहीं, गालियों से दिए जाते हैं।
युवाओं का संकट: सोचने की शक्ति से वंचित : यह प्रवृत्तियाँ अगर सबसे अधिक किसी को प्रभावित कर रही हैं तो वह है युवा वर्ग। आज का युवा सोशल मीडिया के प्रभाव में आकर ब्रांडिंग, शोहरत और झूठी छवि के पीछे भाग रहा है। वह स्वयं के विचारों और क्षमताओं पर भरोसा करने की बजाय ट्रेंड को फॉलो कर रहा है। युवा वर्ग में चिंतन, आलोचना, और नई सोच की जगह सिर्फ कंटेंट क्रिएशन, वायरल होने और फेमस बनने की चाह आ गई है। ऐसे में वह न तो समाज के लिए कुछ सार्थक सोच पा रहा है और न ही अपने जीवन का स्पष्ट लक्ष्य तय कर पा रहा है।
लोकतंत्र पर खतरा
जब समाज चाटुकारिता, मानसिक गुलामी और ब्रांडिंग की गिरफ्त में आ जाता है, तब लोकतंत्र कमजोर होने लगता है। लोकतंत्र की नींव होती है सवाल, आलोचना, बहस और असहमति। लेकिन जब सबकुछ एक ब्रांडिंग अभियान बन जाए, तब ये सब मूल्य धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं।
लोग सोचते हैं कि वे स्वतंत्र हैं, जबकि वास्तव में वे मानसिक गुलामी के सबसे गहरे दलदल में फंसे होते हैं। ऐसा लोकतंत्र सिर्फ नाम का लोकतंत्र रह जाता है, उसमें न आत्मा होती है, न चेतना।
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