Saturday, August 2, 2025
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संविधान की प्रस्तावना पर राजनीति की बिसात: आत्मा पर सत्ता की चालें

  • ‘समाजवादी’ शब्द को हटाने की सोच, शहीद-ए-आज़म भगत सिंह की आत्मा पर चोट है
    “हम भारत के लोग…”
आदेश प्रधान एडवोके
– एडवोकेट आदेश प्रधान.

एडवोकेट आदेश प्रधान | यह वाक्य मात्र संविधान की औपचारिक शुरुआत नहीं है, यह उस ऐतिहासिक दस्तावेज़ की आत्मा है जो भारतीय लोकतंत्र की नींव है। यह वाक्य करोड़ों भारतीयों की आकांक्षाओं, संघर्षों और बलिदानों का समवेत स्वर है। यह वाक्य स्वतंत्रता आंदोलन के हर सेनानी की प्रतिज्ञा है और उस नई व्यवस्था की उद्घोषणा है जो समानता, न्याय, स्वतंत्रता और बंधुता की आधारशिला पर खड़ी है। लेकिन आज जब इस प्रस्तावना में लिखे गए शब्दों—‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’—को हटाने की योजनाएं सामने आती हैं, तो यह केवल संविधान पर हमला नहीं है, यह उन शहीदों के सपनों पर भी हमला है जिन्होंने क्रांति को सामाजिक न्याय से जोड़ा।

 

राजनीति की नई चाल: संविधान की आत्मा के साथ खिलवाड़

हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के वरिष्ठ नेता दत्तात्रेय होसबोले ने संविधान की प्रस्तावना में से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की वकालत की। उनका तर्क है कि ये शब्द आपातकाल (1975) के दौरान 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़े गए थे और डॉ. अंबेडकर के मूल संविधान का हिस्सा नहीं थे। उनका यह भी कहना था कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ एक विदेशी अवधारणा है और ‘समाजवाद’ भारत की आर्थिक दुर्दशा का कारण रहा है। लेकिन क्या ये दावे ऐतिहासिक सच्चाई से मेल खाते हैं? क्या संविधान केवल शब्दों का दस्तावेज़ है या वह एक जीवंत समाज का सपना है?

दरअसल यह बहस कोई नई नहीं है। वर्ष 2014 के बाद से जब-जब सत्ता पर आरएसएस-प्रेरित ताकतें मजबूत हुई हैं, तब-तब संविधान की प्रस्तावना पर उंगली उठाई गई है। ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को “थोपे गए शब्द” कहकर इस विचारधारा को कमजोर करने का प्रयास किया जाता है। यह उन मूल मूल्यों पर सीधा हमला है, जिन्हें संविधान निर्माताओं ने शब्दों से पहले अपने कार्यों में उतारा था।

समाजवाद: भारतीयता की आत्मा, कोई आयातित विचार नहीं

जो लोग यह कहते हैं कि ‘समाजवाद’ एक विदेशी विचार है, वे भूल जाते हैं कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की आत्मा ही सामाजिक न्याय थी। महात्मा गांधी के ‘ग्राम स्वराज’, पंडित नेहरू की ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’, और डॉ. अंबेडकर की ‘सामाजिक पुनर्रचना’ — यह सभी समाजवाद के भारतीय संस्करण ही थे।

महात्मा गांधी मानते थे कि भारत का पुनर्निर्माण गांवों से होगा, जहां श्रम की गरिमा हो, उत्पादन के साधनों पर सामूहिक स्वामित्व हो, और संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण हो। यह दर्शन समाजवाद की आत्मा ही तो है। पंडित नेहरू ने सार्वजनिक क्षेत्र को मजबूत किया, ताकि हर नागरिक को न्यूनतम जीवन-स्तर मिल सके। डॉ. अंबेडकर ने लिखा — “राजनीतिक समानता तब तक खोखली है जब तक सामाजिक और आर्थिक असमानता बनी रहती है।”

इन सबके मूल में एक ही बात है: भारत की आज़ादी केवल सत्ता हस्तांतरण नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति थी। जब 1976 में ‘समाजवादी’ शब्द जोड़ा गया, तब यह नया विचार नहीं था बल्कि पहले से अंतर्निहित दर्शन का औपचारिक रूप था।

धर्मनिरपेक्षता: भारत की ऐतिहासिक पहचान

धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को विदेशी बताना भारत के ऐतिहासिक यथार्थ से मुंह मोड़ना है। भारत एक ऐसा देश है जहां सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम, ईसाई और अनेक स्थानीय धर्मों ने सह-अस्तित्व के दर्शन को जन्म दिया। यहां कोई भी धर्म राज्य का नहीं रहा — यह हमारी सांस्कृतिक विरासत है।
महात्मा गांधी ने कहा था, “धर्म और राजनीति अलग नहीं हो सकते, लेकिन धर्म का अर्थ निजी नैतिकता और आत्मिक चेतना है, मज़हबी प्रचार नहीं।” मौलाना आज़ाद ने भारत को गंगा-जमुनी तहज़ीब का उदाहरण बताया। पंडित नेहरू ने धर्म को व्यक्तिगत मान्यता कहा और राज्य को धर्मनिरपेक्ष बनाने की पैरवी की। डॉ. अंबेडकर ने स्पष्ट किया था — “राज्य का कोई धर्म नहीं होगा।” यह सब भारतीय धर्मनिरपेक्षता का मूल है — न कि कोई पश्चिमी आयात।

शहीद-ए-आज़म भगत सिंह: समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का जीवंत प्रतीक

जो सबसे अधिक उपेक्षित सत्य है, वह यह है कि भगत सिंह केवल स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, वे विचारों के योद्धा थे। उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” रखा। यह केवल एक नामकरण नहीं था, यह भारत के समाजवादी और समावेशी भविष्य की घोषणा थी।

भगत सिंह ने लिखा — “क्रांति का अर्थ है अन्याय, शोषण और असमानता से मुक्ति।” उन्होंने पूंजीवाद, सामंतवाद और धार्मिक कट्टरता को भारत की सबसे बड़ी समस्याएं बताया। उनकी नास्तिकता कोई सनक नहीं, बल्कि सोच समझकर लिया गया निर्णय था। उन्होंने धर्म को शोषण और सत्ता के औजार के रूप में देखा और उसका खंडन किया।

जो लोग आज भगत सिंह को केवल वीर कहकर उनका गौरवगान करते हैं, वे उनकी विचारधारा को छिपाना चाहते हैं। उनका राष्ट्रवाद समावेशी था — वह किसी एक धर्म, जाति या वर्ग के लिए नहीं था, बल्कि पूरे भारतवर्ष के लिए था। वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ, जातिवाद के खिलाफ और हर प्रकार के उत्पीड़न के खिलाफ थे। उनके लिए क्रांति का अर्थ ‘आज़ादी’ से बहुत आगे जाकर सामाजिक न्याय था।

न्यायपालिका की चेतावनी: मूल संरचना से छेड़छाड़ स्वीकार नहीं

संविधान की मूल संरचना पर सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं। केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि संविधान का मूल ढांचा नहीं बदला जा सकता — और धर्मनिरपेक्षता उसका अभिन्न हिस्सा है।

एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में न्यायालय ने कहा कि अगर कोई राज्य सरकार धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करती है, तो उसे बर्खास्त किया जा सकता है। यह सिद्धांत केवल सैद्धांतिक बात नहीं है, यह संविधान की आत्मा है।

इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ (1992), यानी मंडल कमीशन केस में सुप्रीम कोर्ट ने ‘समाजवाद’ को ‘सामाजिक न्याय’ से जोड़ा और पिछड़े वर्गों को आरक्षण को न्यायसंगत बताया।

यह सभी निर्णय बताते हैं कि चाहे ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द बाद में जुड़े हों, लेकिन उनके मूल्य पहले दिन से संविधान की आत्मा में मौजूद रहे हैं।

राजनीतिक चालें: प्रस्तावना की मूल प्रति और आधा सच

साल 2024–25 में जब संविधान के अंगीकरण के 75 वर्ष पूरे हुए, तब कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गईं, जिनमें मांग की गई कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाए जाएं क्योंकि वे संविधान की मूल प्रति में नहीं थे। याचिकाकर्ताओं ने इस आधार पर बहस की कि यह शब्द बाद में जोड़े गए थे, इसलिए इनका कोई संवैधानिक आधार नहीं है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इन याचिकाओं को खारिज कर दिया। अदालत ने साफ कहा कि संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है, जो समय के साथ विकसित होता है। संविधान में किए गए संशोधन — खासकर जब वे मूल संरचना को मजबूत करते हैं — उन्हें अस्वीकार नहीं किया जा सकता।

इसलिए जब संसद में प्रस्तावना की 1950 वाली प्रति दिखाकर यह दावा किया जाता है कि ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द मूल में नहीं थे, तो यह अधूरी सच्चाई होती है। मूल्य वहां भी थे — शब्द बाद में आए।

वर्तमान सत्ता की रणनीति: संविधान को तोड़ना नहीं, मोड़ना है

आज संविधान को तोड़ने का दुस्साहस नहीं किया जा सकता, लेकिन उसे मोड़ने के प्रयास लगातार जारी हैं। शिक्षण संस्थानों में संविधान की मूल प्रति के नाम पर विकृत प्रति पढ़ाना, सोशल मीडिया पर भ्रम फैलाना, और संविधान दिवस को केवल औपचारिकता बना देना — यह सब संकेत हैं उस खतरनाक मानसिकता के, जो संविधान को किताबों तक सीमित करना चाहती है।

ऐसी मानसिकता संविधान की आत्मा को मार रही है — और यह हत्या है उस संकल्प की, जो हमने “हम भारत के लोग” के नाम पर लिया था।

जनता का दायित्व: संविधान के रक्षक बनें या सत्ता के उपकरण?

डॉ. अंबेडकर ने कहा था — “संविधान चाहे जितना अच्छा हो, वह उतना ही अच्छा या बुरा होगा जितने अच्छे या बुरे लोग उसे लागू करेंगे।” अब यह सवाल जनता के सामने है — क्या वे संविधान की आत्मा की रक्षा करेंगे या सत्ता की चालों के सामने नतमस्तक हो जाएंगे?

विशेषकर युवाओं को यह तय करना होगा कि वे भगत सिंह जैसे विचारकों की विरासत को जीवित रखेंगे या उसे स्मारकों में बंद करके भूल जाएंगे। क्या संविधान की प्रस्तावना केवल कक्षा की पाठ्यपुस्तकों में छपी एक औपचारिकता बनकर रह जाएगी या हमारे जीवन का हिस्सा बनकर शासन व्यवस्था की आत्मा बनी रहेगी?

निष्कर्ष: संविधान की आत्मा की रक्षा हमारा दायित्व है

संविधान की प्रस्तावना कोई सामान्य प्रस्ताव नहीं है। यह एक जीवंत सामाजिक अनुबंध है — भारत के हर नागरिक से किया गया वादा। इसमें दर्ज हर शब्द — ‘समाजवादी’, ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘लोकतंत्रात्मक’ — उस भारत की कल्पना करता है, जहां धर्म, जाति, लिंग या वर्ग किसी भी नागरिक के अधिकारों में बाधा नहीं बनेगा।

जब ये शब्द खतरे में हों, तो केवल विधि विशेषज्ञों या न्यायपालिका की जिम्मेदारी नहीं है उन्हें बचाना। यह हर नागरिक का धर्म है। आज जब सत्ता की राजनीति संविधान की आत्मा को मिटाने पर तुली है, तब यह हमारी चुप्पी ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बनती है।

हमें फिर से वह संकल्प लेना होगा —
“हम भारत के लोग…”
…किसी दल के नहीं, संविधान की आत्मा के रक्षक हैं।

 

नोट: संपादकीय पेज पर प्रकाशित किसी भी लेख से संपादक का सहमत होना आवश्यक नही है ये लेखक के अपने विचार है।

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