तबाही और चुप्पी: बाढ़ के बहाव में डूबता सच

एडवोकेट आदेश प्रधान | जम्मू-कश्मीर से लेकर पंजाब तक और हिमाचल से लेकर हरियाणा तक इस वक्त पानी ही पानी है। नदियाँ अपने किनारों को तोड़ चुकी हैं, खेत झील बन गए हैं, सड़कें गायब हो चुकी हैं और गाँव शहर के नक्शे से मिटने लगे हैं। यह सिर्फ़ बरसात नहीं है, यह त्रासदी है, जिसमें सैकड़ों जानें जा चुकी हैं और हज़ारों करोड़ की संपत्ति का नुकसान हो चुका है। हर तरफ़ से चीख़ें और मदद की गुहारें उठ रही हैं, मगर सवाल यह है कि क्या इन आवाज़ों को कोई सुन रहा है?
भूस्खलन की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं। एक पल किसी पहाड़ के टूटकर नीचे गिरने का दृश्य सामने आता है, दूसरे ही पल किसी कार के पानी में बह जाने का, तीसरे ही पल किसी औरत के बच्चों को गोद में लेकर भागने का। डिजिटल दुनिया में तबाही का दस्तावेज़ तो बन रहा है, लेकिन उसमें स्थायित्व नहीं है। एक वीडियो आता है, हमें झकझोरता है, और फिर दूसरी ही रील हमें किसी नाच-गाने में उलझा देती है। इस तेज़ रफ़्तार में सबसे बड़ा नुकसान यही है कि जवाबदेही कहीं खो जाती है। सवाल पूछने की जगह मनोरंजन ले लेता है और त्रासदी उतनी ही जल्दी ग़ायब हो जाती है जितनी जल्दी वायरल हुई थी।
इस बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि मुख्यधारा का मीडिया कहाँ है। टेलीविज़न चैनल लगातार कई घंटे प्रधानमंत्री और पुतिन की तस्वीरें दिखा सकते हैं, विदेश यात्राओं और समझौतों पर बहस कर सकते हैं, लेकिन जब गाँव दर गाँव पानी में डूब जाते हैं, जब राहत शिविरों में बच्चे भूख से रोते हैं, जब किसान अपने मवेशियों को डूबते हुए देखते हैं, तब कैमरों का फोकस क्यों गायब हो जाता है। क्या यह विडंबना नहीं कि देश का मीडिया सत्ता के हाव-भाव और मंचों को दिखाने में तत्पर है लेकिन जनता की त्रासदी को नज़रअंदाज़ कर देता है।
सरकार और प्रशासन की भूमिका भी सवालों के घेरे में है। मौसम विभाग ने पहले ही चेतावनियाँ जारी कर दी थीं। राज्यों को साफ़-साफ़ कहा गया था कि अगले दिनों में भारी बारिश और बाढ़ का ख़तरा है। फिर क्यों गाँवों को पहले से सुरक्षित जगहों पर नहीं ले जाया गया, क्यों बाँध और नाले साफ़ नहीं हुए, क्यों अवैध खनन और जंगलों की कटाई पर लगाम नहीं लगी, क्यों राहत और बचाव दल समय पर तैनात नहीं किए गए। अगर चेतावनी के बावजूद तैयारी न की जाए तो यह सिर्फ़ प्राकृतिक आपदा नहीं रह जाती, यह प्रशासनिक विफलता और लापरवाही भी कहलाती है।
लेकिन जब कैमरे सवाल नहीं पूछते तो सत्ताएँ बेफ़िक्र हो जाती हैं। यही कारण है कि टीवी स्क्रीन पर आपको राहत सामग्री बाँटते नेता तो नज़र आएँगे, मगर वही चैनल यह नहीं दिखाएँगे कि उसी गाँव में सैकड़ों परिवार तीन दिन से भूखे बैठे हैं। यही मीडिया सत्ता की छवि सँवारने में व्यस्त है जबकि पत्रकारिता का मूल उद्देश्य जनता की तकलीफ़ों को सामने लाना और सरकार को जवाबदेह बनाना है। जब मीडिया सत्ता का प्रचार विभाग बन जाता है तो जनता की आवाज़ दब जाती है और लोकतंत्र खोखला हो जाता है।
हमारे पास संसाधन नहीं हैं कि हर गाँव जाकर वीडियो ला सकें। हमारे पास वे वायरल तस्वीरें दिखाने का अधिकार भी नहीं है जो ट्विटर और यूट्यूब पर तैर रही हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हम सच्चाई से मुँह मोड़ लें। हम यह जानते हैं कि लोग किस हाल में जी रहे हैं। हम जानते हैं कि कई इलाक़ों में लोग सड़क किनारे अपने हाथों से नाले काट रहे हैं ताकि पानी निकल सके। हम जानते हैं कि किसानों की पूरी फसलें डूब गई हैं और बच्चों के स्कूल की किताबें बह गई हैं। हम जानते हैं कि गाँवों में औरतें मिट्टी काटकर अस्थायी दीवारें बना रही हैं ताकि पानी घर में न घुसे। ये दृश्य कैमरे में कैद न हो पाएँ, फिर भी इनकी सच्चाई कहीं से कम नहीं होती।
बाढ़ हर बार केवल पानी का बहाव नहीं लाती, यह राजनीति और सत्ता की पोल भी खोल देती है। लोग पूछ रहे हैं कि हमारे टैक्स का पैसा कहाँ गया, जिन परियोजनाओं के नाम पर फंड निकाला गया था वे सिर्फ़ काग़ज़ों तक ही क्यों रहे, नेताओं ने चुनावी भाषणों में जो वादे किए थे वे क्यों पूरे नहीं हुए। यह सवाल सिर्फ़ किसी एक राज्य से नहीं, पूरे उत्तर भारत से उठ रहे हैं।
हर त्रासदी के बाद यही पैटर्न दोहराया जाता है। मौतें होती हैं, गाँव तबाह होते हैं, मीडिया चुप रहता है, सरकार आँकड़े कम करके पेश करती है और फिर धीरे-धीरे सब भूल जाता है। अगली बार जब बारिश आएगी तो वही कहानी दोहराई जाएगी। इस चक्र को तोड़ना तभी संभव है जब मीडिया अपनी असली भूमिका निभाए और सत्ता को आईना दिखाए।
आज ज़रूरत इस बात की है कि हम त्रासदी को सिर्फ़ प्राकृतिक नहीं मानें। हमें यह समझना होगा कि यह हमारे विकास मॉडल की भी असफलता है। जब नदियों के किनारों पर अंधाधुंध कंक्रीट उगता है, जब पहाड़ों को अंधाधुंध काटा जाता है, जब जंगलों को बर्बाद किया जाता है, तो बारिश सिर्फ़ एक बहाना बन जाती है। असली वजह हमारी नीतियाँ और हमारी नाकामी है।
इस आपदा ने एक बार फिर साबित किया है कि भारत जैसे देश में मीडिया की चुप्पी भी उतनी ही घातक है जितनी सरकार की लापरवाही। अगर मीडिया सवाल पूछे तो सरकार जवाब देने पर मजबूर होती है। अगर मीडिया जनता की पीड़ा को लगातार दिखाए तो व्यवस्था को बदलना पड़ता है। लेकिन अगर मीडिया ही सत्ता का ढाल बन जाए, तो जनता के पास बचता क्या है।
उत्तर भारत की यह बाढ़ हमें चेतावनी दे रही है कि अब भी समय है, अब भी सुधर सकते हैं। अगर हमने सबक नहीं लिया तो आने वाले वर्षों में यही त्रासदी और बड़ी होगी, मौतें और बढ़ेंगी और नुकसान अकल्पनीय होगा। क़ुदरत का कहर रोकना हमारे बस में नहीं, लेकिन उसकी मार को कम करना हमारे हाथ में है। इसके लिए ज़रूरी है कि हम जिम्मेदारी स्वीकार करें, तैयारी करें और सबसे ज़रूरी – मीडिया सत्ता के साथ नहीं, जनता के साथ खड़ा हो।
बाढ़ के बहाव में सिर्फ़ घर और खेत नहीं डूबे हैं, इसमें सच्चाई भी डूबी है, जवाबदेही भी और पत्रकारिता भी। यही समय है कि हम इन तीनों को सतह पर लाएँ, वरना आने वाले दिनों में इतिहास हमें माफ़ नहीं करेगा।
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