- भाजपा दलितों को साधने में अब तक नहीं हो पाई कामयाब,
- 25 फरवरी 2018 को राष्ट्रोदय में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी दलितों को जोड़ने की कही थी बात।
अनुज मित्तल (समाचार संपादक) |
शारदा न्यूज, मेरठ। भाजपा का वोट बैंक अब कहीं न कहीं सिमटता नजर आ रहा है। जिसे लेकर शीर्ष प्रबंधन भी परेशान है। अहम बात ये है कि साढ़े पांच साल में भी भाजपा दलितों को अपने साथ जोड़ने में कामयाब नहीं हो पाई है। ऐसे में इस बार का लोकसभा चुनाव जो कि सिर्फ दो गठबंधन के बीच सिमटता नजर आ रहा है। उसमें पिश्चमी यूपी में भाजपा के सामने बड़ी चुनौती नजर आ रही है।
25 फरवरी 2018 को मेरठ के जागृति विहार एक्सटेंशन में आरएसएस का राष्ट्रोदय के नाम से स्वयं सेवक समागम हुआ था। जिसमें मेरठ और मुरादाबाद मंडल के दो लाख से ज्यादा स्वयं सेवक जुटे थे। इस कार्यक्रम में संघ प्रमुख मोहनराव भागवत ने संघ स्वयं सेवकों को दलितों के बीच जाकर उन्हें जोड़ने का निर्देश दिया था। अप्रत्यक्ष रूप से यह भाजपा के लिए भी संदेश था। क्योंकि संघ नेतृत्व का मानना है था कि भविष्य में बगैर दलितों को जोड़े भाजपा के सामने मुश्किलें खड़ी होंगी। संघ की यह सोच अब कहीं न कहीं सही साबित हो रही हैं। क्योंकि गन्ना और जाट आरक्षण आंदोलन के बीच जिस तरह जाट भाजपा से नाराज दिख रहा है और उसी का फायदा उठाकर विपक्ष भाजपा पर हमलावर हो रहा है। उससे साफ है कि 2024 का चुनाव आसान नहीं होगा। विधानसभा के उपचुनाव में भी अधिकांश सीटों पर यह देखने को मिला है। जिसमें भाजपा का मूल वोट बैंक ही कहीं न कहीं खिसकता नजर आया है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती अपने ही वोट बैंक को संभालने की है। क्योंकि वैश्य, ब्राहमण और अति पिछड़ा वर्ग जिसमें प्रजापति, कश्यप, सैनी, पाल आदि आते हैं, यह भाजपा का पक्का वोट बैंक माना जाता है। लेकिन अब इस वोट बैंक को भी बचाकर रखना भाजपा के सामने चुनौती बन रहा है।
बात अगर गुर्जर, त्यागी आदि की करें तो इनका झुकाव अपने सजातीय प्रत्याशी की तरफ ज्यादा नजर आता है। इसलिए भाजपा इस वोट बैंक को लेकर भी परेशान है। रही बात जाट बिरादरी की तो 2014 के लोकसभा चुनाव में जाट पूरी तरह भाजपा के साथ थे, लेकिन 2019 में यह हटा हुआ नजर आया और इस वक्त भाजपा और विपक्ष के बीच जाट वोटों को लेकर खींचतान मची हुई है।
भाजपा नेताओं को पता है कि मुस्लिम वोट इस बार उसके खिलाफ पूरी तरह एकजुट होकर जाएगा। ऐसे में दलित वोट ही सबसे ज्यादा निर्णायक भूमिका में होगा। जिसे साधने के लिए तमाम दलित नेताओं को भाजपा ने ज्वाइन कराया है तो पुराने नेताओं को भी कमान सौंपी गई है। लेकिन घोसी के उपचुनाव ने साफ कर दिया कि इस वोट बैंक को साधना अभी भाजपा के लिए आसान नहीं है।