Wednesday, June 25, 2025
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मूल्यबोध और राष्ट्रहित बने मीडिया का आधार

  • मूल्यबोध और राष्ट्रहित बने मीडिया का आधार।
– संजय

संजय | हिंदी पत्रकारिता दिवस हम 30 मई को मनाते हैं। इसी दिन 1826 को कोलकाता से पं.युगुल किशोर शुक्ल ने हिंदी भाषा के पहले पत्र ह्यउदंत मार्तण्डह्ण की शुरूआत की थी। यह संयोग था या सुविचारित योजना कि उस दिन भारतीय तिथि से नारद जयंती भी थी। यानि हिंदी के पहले संपादक ने भी नारद जी अपने पुरखों के रुप में देखा। संपादकीय में उन्होंने हमें पत्रकारिता का उद्देश्य और बीज मंत्र भी यह लिखकर दिया- हिंदुस्तानियों के हित के हेतह्ण। इस नजरिए से मूल्यबोध और राष्ट्रहित हमारी मीडिया का आधार रहा है। इन 200 सालों की यात्रा में हमने बहुत कुछ अर्जित किया है। आज भी मीडिया की दुनिया में आदर्शों और मूल्यों का विमर्श चरम पर है। विमर्शकारों की दुनिया दो हिस्सों में बंट गयी है। एक वर्ग मीडिया को कोसने में सारी हदें पार कर दे रहा है तो दूसरा वर्ग मानता है जो हो रहा वह बहुत स्वाभाविक है तथा काल-परिस्थिति के अनुसार ही है।

उदारीकरण और भूमंडलीकृत दुनिया में भारतीय मीडिया और समाज के पारंपरिक मूल्यों का बहुत महत्त्व नहीं है। एक समय में मीडिया के मूल्य थे सेवा, संयम और राष्ट्र कल्याण। आज व्यावसायिक सफलता और चर्चा में बने रहना ही सबसे बड़े मूल्य हैं। कभी हमारे आदर्श महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुवेर्दी और गणेश शंकर विद्यार्थी थे, ताजा स्थितियों में वे रुपर्ट मर्डोक और जुकरबर्ग हों? सिद्धांत भी बदल गए हैं। ऐसे में मीडिया को पारंपरिक चश्मे से देखने वाले लोग हैरत में हैं। इस अंधेरे में भी कुछ लोग मशाल थामे खड़े हैं, जिनके नामों का जिक्र अकसर होता है, किंतु यह नितांत व्यक्तिगत मामला माना जा रहा है। यह मान लिया गया है कि ऐसे लोग अपनी बैचेनियों या वैचारिक आधार के नाते इस तरह से हैं और उनकी मुख्यधारा के मीडिया में जगह सीमित है। तो क्या मीडिया ने अपने नैसर्गिक मूल्यों से भी शीर्षासन कर लिया है, यह बड़ा सवाल है।

सच तो यह है भूमंडलीकरण और उदारीकरण इन दो शब्दों ने भारतीय समाज और मीडिया दोनों को प्रभावित किया है। 1991 के बाद सिर्फ मीडिया ही नहीं पूरा समाज बदला है, उसके मूल्य, सिद्धांत, जीवनशैली में क्रांतिकारी परिर्वतन परिलक्षित हुए हैं। एक ऐसी दुनिया बन गयी है या बना दी गई है जिसके बारे में काफी कुछ कहा जा चुका है। आज भूमंडलीकरण को लागू हुए चार दशक होने जा रहे हैं। उस समय के प्रधानमंत्री श्री पीवी नरसिंह राव और तत्कालीन वित्तमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने इसकी शुरूआत की तबसे हर सरकार ने कमोबेश इन्हीं मूल्यों को पोषित किया। एक समय तो ऐसा भी आया जब श्री अटलबिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जब उदारीकरण का दूसरा दौर शुरू हुआ तो स्वयं नरसिंह राव जी ने टिप्पणी की ह्लहमने तो खिड़कियां खोली थीं, आपने तो दरवाजे भी उखाड़ दिए।ह्व यानी उदारीकरण-भूमंडलीकरण या मुक्त बाजार व्यवस्था को लेकर हमारे समाज में हिचकिचाहटें हर तरफ थी। एक तरफ वामपंथी, समाजवादी, पारंपरिक गांधीवादी इसके विरुद्ध लिख और बोल रहे थे, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अपने भारतीय मजूदर संघ एवं स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों के माध्यम से इस पूरी प्रक्रिया को प्रश्नांकित कर रहा था।

यह साधारण नहीं था कि संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने वाजपेयी सरकार के वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को ह्यअनर्थ मंत्रीह्ण कहकर संबोधित किया। खैर ये बातें अब मायने नहीं रखतीं। 1991 से 2025 तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है और सरकारें, समाज व मीडिया तीनों ह्यमुक्त बाजारह्ण के साथ रहना सीख गए हैं। यानी पीछे लौटने का रास्ता बंद है। बावजूद इसके यह बहस अपनी जगह कायम है कि हमारे मीडिया को ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा मानवीय और ज्यादा संवेदनशील कैसे बनाया जाए। व्यवसाय की नैतिकता को किस तरह से सिद्धांतों और आदर्शों के साथ जोड़ा जा सके।
यह साधारण नहीं है कि अनेक संगठन आज भी मूल्य आधारित मीडिया की बहस से जुड़े हुए हैं। इस सारे समय में पठनीयता का संकट, सोशल मीडिया का बढ़ता असर, मीडिया के कंटेट में तेजी से आ रहे बदलाव, निजी नैतिकता और व्यावसायिक नैतिकता के सवाल, मोबाइल संस्कृति से उपजी चुनौतियों के बीच मूल्यों की बहस को देखा जाना चाहिए। इस समूचे परिवेश में आदर्श, मूल्य और सिद्धांतों की बातचीत भी बेमानी लगने लगी है। बावजूद इसके एक सुंदर दुनिया का सपना, एक बेहतर दुनिया का सपना देखने वाले लोग हमेशा एक स्वस्थ और सरोकारी मीडिया की बहस के साथ खड़े रहेंगे। संवेदना, मानवीयता और प्रकृति का साथ ही किसी भी संवाद माध्यम को सार्थक बनाता है। संवेदना और सरोकार समाज जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है, तो मीडिया उससे अछूता कैसे रह सकता है।

 

नोट: संपादकीय पेज पर प्रकाशित किसी भी लेख से संपादक का सहमत होना आवश्यक नही है ये लेखक के अपने विचार है।

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