अमृत काल नहीं, यह जनसंवेदना का अपमान काल है!

एडवोकेट आदेश प्रधान | सरकार के 11 वर्षों के शासन का वास्तविक मूल्यांकन: संविधान, न्याय और जनसंवेदनशीलता के परिप्रेक्ष्य में जब लोकतंत्र की आत्मा सवाल करती है तो सरकार को जवाब देना चाहिए। यदि कोई निर्वाचित सरकार अपने शासनकाल को ‘अमृत काल’—यानी एक ऐसा युग जिसमें राष्ट्र समृद्धि, न्याय और समानता के चरम पर हो—बताती है, तो इसका मूल्यांकन केवल सरकारी प्रचार से नहीं, बल्कि जनजीवन की स्थिति, संवैधानिक आदर्शों और न्याय की उपलब्धता से होना चाहिए। जब युवा बेरोजगारी से त्रस्त होकर आत्महत्या करता है, किसान कर्ज़ में डूबकर फंदा लगाता है, महिलाएँ असुरक्षित महसूस करती हैं और सीमाओं पर अतिक्रमण होता है, तब यह यथार्थ किसी “अमृत काल” का संकेत नहीं, बल्कि एक ऐसे समय का प्रमाण होता है जो लोकतंत्र, संविधान और नागरिक अधिकारों की ‘अवमानना’ है।
अमृत काल में बेरोजगारी गरिमायुक्त जीवन के अधिकार का हनन है: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का मौलिक अधिकार देता है। लेकिन जब करोड़ों शिक्षित युवाओं को काम न मिले, और वे डिग्री लेकर भी दर-दर की ठोकरें खाएँ, तो यह अधिकार केवल किताबों तक सीमित रह जाता है।
देश भर में देशव्यापी बेरोज़गारी दर (2024): 8.1% शहरी युवा बेरोज़गारी दर: 28.3% (सीएमआईई) उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में एक युवा ने आत्महत्या से पहले लिखा: “मैंने बीएड किया, टेट पास किया, दो साल से इंतजार कर रहा हूँ… अब पिता की दुकान भी बंद हो गई… किसी को क्या मुँह दिखाऊँ।” यह कहते हुए आत्म हत्या कर ली ।
न्यायालय ने कई वर्ष पूर्व टिप्पणी कि – ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे नगर निगम (1985): रोज़गार केवल जीविका नहीं, यह जीवन की गरिमा का मूलाधार है।” क्या जिस युग में युवाओं को नौकरी नहीं मिलती और वे आत्महत्या पर मजबूर होते हैं, उसे “अमृत काल” कहा जा सकता है?
नहीं, यह अमृत काल नहीं, बेरोज़गारी काल है: इस बेरोजगारी के काल में शिक्षा को भारतीय संविधान में समानता का अधिकार अनुच्छेद 21क (21A) बच्चों को 6 से 14 वर्ष की आयु तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है। लेकिन सरकारी स्कूलों की हालत, शिक्षक की कमी और मूलभूत सुविधाओं का अभाव इस अधिकार का मज़ाक बना देते हैं। स्कूल में ना टीचर है ना कर्मचारी है, शिक्षा को मज़ाक बना कर रख दिया गया है। अगर तथ्य को देखने पर पता चला कि (यूडीआईएसई+ 2023): तीस प्रतिशत से अधिक स्कूलों में विज्ञान प्रयोगशाला नहीं। पचास प्रतिशत से ज़्यादा स्कूलों में कंप्यूटर तक नहीं। पीने के लिए साफ पानी तक नहीं है स्कूल में जाने के लिए कोई व्यवस्था सरकार द्वारा नहीं की गई है। तकनीकी के दौर में तकनीकी से जुड़ने का कोई माध्यम सरकारी स्कूलों में नहीं है। भारत भर में हजारों से अधिक स्कूल “सिंगल टीचर” स्कूल हैं।
अनेकों स्कूल ऐसे हैं जहां एकमात्र शिक्षक है और कोई वैकल्पिक व्यवस्था भी तय नहीं की गई है। न्यायालय ने समय समय पर टिप्पणी कि मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक (1992): वाद में
“शिक्षा का अधिकार जीवन के अधिकार में निहित है।” लेकिन केवल सब कुछ किताबो तक सीमित है । क्या वह युग “अमृत काल” हो सकता है?
स्वास्थ्य: जीवन रक्षक नहीं, व्यवस्था की विफलता — कोविड महामारी ने भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था के नंगे सच को उजागर कर दिया। जब अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से लोग मर रहे थे, तब संसद में सरकार का जवाब था – “कोई मौत ऑक्सीजन की कमी से नहीं हुई।” इस जवाब से सभी को हैरानी हुई । भारत अपनी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 1.29% स्वास्थ्य पर खर्च करता है (विश्व स्वास्थ्य संगठन)।
अधिकांश ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टर, दवाइयाँ और उपकरणों की भारी कमी है।
दिल्ली के बत्रा अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से 12 लोगों की मौत हुई – डॉक्टरों ने कैमरे पर पुष्टि की, लेकिन सरकार ने जवाबदेही नहीं ली।
दिल्ली उच्च न्यायालय (2021): “ऑक्सीजन आपूर्ति में असफलता अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।”
जब स्वास्थ्य संकट पर सरकार झूठ बोलती है, क्या यह “अमृत काल” नहीं, जनता के जीवन की अवमानना है इस अवमानना में महंगाई का अपना रूप है थाली से निवाला और जेब से सम्मान छीनती आग अब महंगाई हर उस गरीब की थाली पर वार है, जिसके पास पहले ही सीमित साधन हैं।
रसोई गैस, दाल, आटा, तेल—सब दुगुनी-तिगुनी दरों पर बिक रहे हैं, जबकि आय लगभग स्थिर है।
गैस सिलेंडर की कीमत: ₹1150 से अधिक है और उज्ज्वला योजना केवल एक छलावा साबित हुई।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स (2023): भारत 125 में 111वें स्थान पर है। हम “विश्वगुरु” बनने का झूठा दम भर रहे हैं। भारत के राज्य बिहार में एक रिक्शा चालक ने अपने बच्चे का इलाज कराने के लिए गैस सिलेंडर बेच दिया और चूल्हे पर लकड़ी जलाने को मजबूर हो गया।
पीयूसीएल बनाम भारत सरकार (2001): “भुखमरी से मौत संविधान का अपमान है।” यह अपमान भारत के प्रत्येक राज्यों में कोई न कोई गरीब व्यक्ति हर रोज झेल रहा है। जब कोई माँ अपने बच्चे को खाना नहीं खिला सकती, तो वह काल “अमृत” कैसे हो सकता है?
जब लोकतंत्र की आत्मा सवाल करती है यदि कोई निर्वाचित सरकार अपने शासनकाल को ‘अमृत काल’—यानी एक ऐसा युग जिसमें राष्ट्र समृद्धि, न्याय और समानता के चरम पर हो—बताती है, तो इसका मूल्यांकन केवल सरकारी प्रचार से नहीं, बल्कि जनजीवन की स्थिति, संवैधानिक आदर्शों और न्याय की उपलब्धता से होना चाहिए।
खोखले अमृत काल पर कवि दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ याद आती हैं:
“कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए,
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए…”
सरकारी अमृत काल मे जब युवा बेरोजगारी से त्रस्त होकर आत्महत्या करता है, किसान कर्ज़ में डूबकर फंदा लगाता है, महिलाएँ असुरक्षित महसूस करती हैं और सीमाओं पर अतिक्रमण होता है, तब यह यथार्थ किसी “अमृत काल” का संकेत नहीं, बल्कि एक ऐसे समय का प्रमाण होता है जो लोकतंत्र, संविधान और नागरिक अधिकारों की ‘अवमानना’ है।
भारत के नवयुवक अपने सपने सच करने के लिए बड़े-बड़े शहरों में जाते हैं लेकिन हर तरफ निराशा हाथ लगती है । कवि दुष्यन्त कुमार की पंक्ति ऐसे समय पर याद आती है
“सब कुछ बचा रहेगा तुम्हारे बाद भी,
सिर्फ़ तुम्हारे सपनों का जनाज़ा निकलेगा।”
आत्ममुग्धता बनाम वास्तविकता
क्या किसी काल को ‘अमृत काल’ कहा जा सकता है, जब –युवा बेरोज़गारी से मरें,
बच्चियाँ शिक्षा से वंचित हों,अस्पतालों में लोग ऑक्सीजन के बिना दम तोड़ें,
और एक माँ रसोई की थाली के लिए कर्ज़ में डूबे?
जब शासन की चुप्पी जनता की चीखों को दबा दे, और आत्ममुग्धता संविधान के आईने को तोड़ दे — तब ‘अमृत काल’ नहीं, ‘अवमानना काल’ होता है।”
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