संघ को “एनजीओ” बताने के पीछे की राजनीति

आदेश प्रधान एडवोकेट: 15 अगस्त का दिन भारतीय जनमानस के लिए केवल एक राष्ट्रीय पर्व नहीं है, बल्कि यह गौरव और आत्ममंथन का भी क्षण है। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री द्वारा दिया गया संबोधन स्वतंत्र भारत की सामूहिक स्मृति में गहरे अंकित होता है। यह अवसर केवल औपचारिक भाषण का मंच नहीं होता, बल्कि इससे भविष्य की दिशा और वर्तमान राजनीति के संकेत झलकते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब इस वर्ष अपने स्वतंत्रता दिवस भाषण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को दुनिया का सबसे बड़ा “एनजीओ” कहकर संबोधित किया, तो यह शब्द उतने ही सरल दिखाई दिए जितने गहरे और विवादास्पद अर्थों से भरे थे। यह वाक्य मानो एक तीर था जिसने राजनीति, इतिहास और विचारधारा के कई परतों को एक साथ चीर दिया।
आरएसएस का नाम भारतीय राजनीति और समाज में कोई नया नहीं है। 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने नागपुर में इसकी नींव रखी थी। उस दौर में भारत गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ था और समाज जातिगत, सांस्कृतिक और आर्थिक खाइयों में बंटा हुआ था। हेडगेवार का मानना था कि अगर हिंदू समाज संगठित और अनुशासित नहीं होगा, तो स्वतंत्रता का लाभ स्थायी नहीं रह पाएगा। शाखाओं के जरिए संघ ने अनुशासन और राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने का प्रयास किया। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका हमेशा विवादित रही। कांग्रेस और वामपंथी दलों ने लगातार आरोप लगाया कि संघ ने अंग्रेज़ों के खिलाफ कोई बड़ा आंदोलन नहीं किया, बल्कि अपने संगठन को मजबूत करने पर ध्यान दिया। जबकि संघ के समर्थक इस आरोप को खारिज करते हुए कहते हैं कि स्वयंसेवकों ने अप्रत्यक्ष रूप से आंदोलन को सहयोग दिया और राष्ट्रनिर्माण में अपनी ऊर्जा झोंकी। यह बहस इतिहास के पन्नों से आज तक चली आ रही है।
आजादी के बाद संघ ने खुद को सांस्कृतिक संगठन घोषित किया और राजनीति से दूरी बनाए रखने की बात कही। लेकिन यह किसी से छिपा नहीं रहा कि जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी को खड़ा करने में संघ की निर्णायक भूमिका रही। 1975 के आपातकाल ने संघ को एक अलग पहचान दी, जब हजारों स्वयंसेवक लोकतंत्र की रक्षा के लिए भूमिगत हो गए। यह वह दौर था जब संघ ने अपनी सामाजिक और वैचारिक ताक़त को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक ताक़त में बदलते देखा।
नरेंद्र मोदी स्वयं संघ के प्रचारक रहे हैं और उनकी पूरी राजनीतिक यात्रा संघ की जमीन से ही उगी है। गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक का उनका सफर संघ की छाया के बिना अधूरा माना जाता है। लेकिन राजनीति स्थिर नहीं होती, यह निरंतर बदलती है। 2014 में प्रधानमंत्री बनने और 2019 में और भी बड़ी जीत हासिल करने के बाद भाजपा का स्वरूप बदलने लगा। धीरे-धीरे भाजपा को केवल संघ की पार्टी कहकर परिभाषित करना मुश्किल हो गया। पार्टी का चेहरा और धड़कन मोदी स्वयं बन गए। कार्यकर्ताओं की पहचान भी बदलने लगी—अब वे संघ स्वयंसेवक कम और “मोदी भक्त” ज्यादा कहलाने लगे।
यहीं से भाजपा और संघ के रिश्तों में दरारें उभरनी शुरू हुईं। किसान आंदोलन पर सरकार का कठोर रुख, बेरोज़गारी और निजीकरण की नीतियाँ, शिक्षा और संस्कृति में पश्चिमी ढाँचे की बढ़ती छाप—इन सब पर संघ की असहमति बार-बार सामने आई। संघ की पत्रिकाओं और मंचों से सरकार पर अप्रत्यक्ष आलोचनाएँ झलकने लगीं। लेकिन भाजपा की अपार राजनीतिक सफलता ने इन आलोचनाओं को महत्वहीन कर दिया। खासकर 2024 के चुनावों में कई जगह संघ का सहयोग कम होने के बावजूद भाजपा ने बेहतरीन प्रदर्शन किया। इससे भाजपा नेतृत्व को यह भरोसा हो गया कि अब चुनावी राजनीति के लिए नागपुर की ज़रूरत पहले जैसी नहीं रही।
इसी पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री ने लाल किले से संघ को दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ कहकर संबोधित किया। यह बयान सतही तौर पर तो संघ की सेवा गतिविधियों की प्रशंसा प्रतीत होता है, लेकिन गहराई में यह संदेश भी छिपा था कि संघ की भूमिका अब केवल सामाजिक सेवा तक सीमित कर दी जा रही है। प्रधानमंत्री जानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर संघ को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। पश्चिमी देशों में उसे अक्सर दक्षिणपंथी, जातिवादी और मुस्लिम-विरोधी संगठन करार दिया जाता है। ऐसे में जब प्रधानमंत्री स्वयं लाल किले से संघ को एनजीओ कहते हैं, तो यह वैश्विक शक्तियों के लिए यह आश्वासन था कि भारत की सरकार किसी कट्टर संगठन की कठपुतली नहीं है।
लेकिन राजनीति का हर कदम दोधारी तलवार होता है। मोदी की इस टिप्पणी ने संघ की ऐतिहासिक और वैचारिक ऊँचाई को छोटा करने का काम भी किया। संघ के लाखों स्वयंसेवकों के लिए यह अपमानजनक था कि जिस संगठन ने दशकों तक भाजपा को पोषित किया और जिसके बल पर भाजपा सत्ता तक पहुँची, उसी को एक साधारण एनजीओ बताकर उसकी पहचान सीमित कर दी गई। नागपुर और दिल्ली में यह चर्चा जोर पकड़ने लगी कि क्या भाजपा अब सचमुच संघ की छाया से बाहर निकलना चाहती है और स्वयं को पूरी तरह मोदी-केंद्रित पार्टी में बदलना चाहती है।
इस बयान पर विपक्ष ने तुरंत हमला बोला। कांग्रेस ने कहा कि प्रधानमंत्री ने स्वयं स्वीकार कर लिया है कि संघ का स्वतंत्रता आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं था और वह केवल एक सेवा संगठन था। वाम दलों ने व्यंग्य किया कि यदि संघ सचमुच एनजीओ है तो उसे विदेशी फंडिंग कानूनों के दायरे में क्यों नहीं लाया जाता। समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने आरोप लगाया कि भाजपा ने सत्ता पाने के बाद संघ को किनारे करना शुरू कर दिया है और उसे केवल सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया गया।
सबसे तीखी प्रतिक्रिया कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने दी। उन्होंने कहा कि अगर संघ दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ है तो उसका पंजीकरण कहाँ है, उसकी फंडिंग का ब्यौरा कहाँ है? उन्होंने प्रधानमंत्री पर सीधा हमला बोलते हुए कहा कि संघ ने 100 वर्षों में संविधान का अपमान किया, तिरंगे का विरोध किया, मंदिर-मस्जिद विवादों को हवा दी और अब दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हकों पर लगातार हमले कर रहा है। पवन खेड़ा ने व्यंग्य करते हुए कहा कि ऐसा संगठन जितनी जल्दी हो सके, बंद कर देना चाहिए। उन्होंने यह भी संकेत दिया कि यदि कांग्रेस सत्ता में आई, तो संघ को कानूनी रूप से पंजीकरण कराना ही पड़ेगा और तब दुनिया देखेगी कि क्या उसका पंजीकरण संभव भी है।
खेड़ा का यह बयान केवल आलोचना नहीं था, बल्कि संघ की वैचारिक वैधता को ही चुनौती देने वाला था। उनका कहना था कि जिस संगठन ने वर्षों तक पर्दे के पीछे से भारतीय राजनीति को प्रभावित किया, उसे अब खुलेआम कानून के दायरे में लाना चाहिए। कांग्रेस के इस रुख ने यह साफ कर दिया कि आने वाले चुनावी वर्षों में संघ और भाजपा का रिश्ता विपक्षी राजनीति का बड़ा मुद्दा बनने वाला है।
संघ के भीतर इस बयान से बेचैनी स्पष्ट दिखी। आधिकारिक रूप से उसने चुप्पी साध ली, लेकिन वरिष्ठ स्वयंसेवकों के बीच यह चर्चा गहराई तक गई कि जिस संगठन ने शरणार्थियों की मदद से लेकर आपातकाल के दौर में लोकतंत्र की रक्षा तक में खुद को झोंक दिया, आज उसी को प्रधानमंत्री द्वारा “एनजीओ” करार देना उसकी ऐतिहासिक भूमिका को छोटा करने जैसा है। स्वयंसेवकों की भावनाएँ आहत हुईं और उन्हें लगा कि भाजपा अब वैचारिक आधार से अधिक सत्ता के समीकरणों पर भरोसा कर रही है।
दरअसल यह पूरा प्रसंग इस बात का संकेत है कि भाजपा अब संघ की पार्टी नहीं रही, बल्कि पूरी तरह मोदी की पार्टी बन चुकी है। भाजपा का जनाधार अब मोदी के करिश्मे और उनकी छवि पर टिका है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने लाल किले से संघ की भूमिका को सीमित कर, खुद को केंद्र में स्थापित करने की कोशिश की।
लेकिन इसका असर गहरा होगा। संघ और भाजपा का रिश्ता केवल संगठनात्मक नहीं, बल्कि वैचारिक भी रहा है। यदि यह रिश्ता दरकता है, तो भाजपा के कार्यकर्ताओं के सामने पहचान का संकट खड़ा होगा। वे स्वयंसेवक हैं या केवल मोदी समर्थक? यह सवाल आने वाले वर्षों में और गहराई से उठेगा। विपक्ष इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा और संघ को यह तय करना होगा कि वह अपनी भूमिका को किस रूप में परिभाषित करे—क्या वह केवल सेवा कार्यों तक सीमित रहेगा या राजनीति में अपनी पुरानी निर्णायक भूमिका फिर से जताएगा।
अंततः यह कहना गलत नहीं होगा कि प्रधानमंत्री का यह बयान केवल संघ को एनजीओ बताने तक सीमित नहीं है। यह भारतीय राजनीति में एक नए युग की शुरुआत का प्रतीक है। सत्ता की राजनीति अब विचारधारा और संगठन की छाया से निकलकर व्यक्ति-केंद्रित हो रही है। संघ की ऐतिहासिक भूमिका चाहे जितनी महान क्यों न रही हो, आज उसकी परिभाषा प्रधानमंत्री के शब्दों से तय हो रही है। और यही सच्चाई आने वाले वर्षों में भारतीय लोकतंत्र और हिंदुत्व दोनों की दिशा तय करेगी।
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