मोहब्बत का कारवां: राहुल गांधी की संघर्ष की शुरुआत संसद से सड़क तक

आदेश प्रधान एडवोकेट | देश की राजनीति में ऐसे बहुत कम चेहरे हैं जो विरोध की आँधियों में खड़े रहकर अपने विचारों, अपने विश्वास और अपनी संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ते हैं। राहुल गांधी इन्हीं चंद चेहरों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल अपनी पार्टी के संकटग्रस्त दौर में उसे संभालने का बीड़ा उठाया, बल्कि वैकल्पिक राजनीति की ऐसी परिभाषा गढ़ने का प्रयास किया जिसमें मोहब्बत, करुणा और समावेशिता को प्राथमिकता दी गई। यह करवा न सिर्फ राहुल गांधी के राजनीतिक सफर को रेखांकित करता है, बल्कि उनके भीतर के उस मनुष्य को भी तलाशता है जो सत्ता की राजनीति से अधिक सत्य की खोज में दिखाई देता है।
2004 में पहली बार अमेठी से सांसद बने राहुल गांधी पर विरासत का दबाव बहुत भारी था। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे पूर्व प्रधानमंत्रियों के वारिस होने के नाते उन पर न सिर्फ कांग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित करने का जिम्मा था, बल्कि एक पूरी पीढ़ी की राजनीतिक उम्मीदें भी उनके कंधों पर थीं। शुरूआती वर्षों में उन्होंने यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई को संगठनात्मक रूप से मजबूत किया। लेकिन मीडिया और विपक्ष के एक बड़े हिस्से ने उन्हें एक ‘अनिर्णायक राजकुमार’ की छवि में कैद करने का प्रयास किया।
राहुल गांधी पर वर्षों से एक संगठित और सोची-समझी रणनीति के तहत छवि हनन किया गया है। उन्हें कमजोर, अपरिपक्व और नेतृत्व के अयोग्य साबित करने के लिए सत्ता पक्ष के नेताओं, आईटी सेल और तथाकथित गोदी मीडिया ने लगातार प्रयास किए। उन्हें “पप्पू” कहकर जिस अपमानजनक पहचान में ढाला गया, वह केवल एक शब्द नहीं था, बल्कि एक राजनीतिक चरित्र हनन अभियान था। मीडिया ने उनके भाषणों को काटकर, संदर्भ से बाहर निकालकर, व्यंग्य के अंदाज़ में प्रस्तुत किया, जिससे जनता के मन में यह भ्रम बैठाया जा सके कि वे गंभीर नहीं हैं।
किसी भी राजनीतिक दल के नेता को मीडिया द्वारा इस कदर हंसी का पात्र बनाना लोकतंत्र के लिए एक काली छाया जैसा है। जब उन्होंने किसानों, युवाओं, बेरोज़गारी और महंगाई की बात की, तो उनके बयानों को मज़ाक बनाकर दिखाया गया। जब उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा की, तो उसे मीडिया ने या तो नजरअंदाज किया या उसकी अर्थवत्ता को हल्का कर दिखाया। यहां तक कि जब वे किसी गंभीर मुद्दे पर प्रेस कॉन्फ़्रेंस करते थे, तब भी उनके हावभाव, शब्दों या उच्चारण पर तंज कसा जाता रहा। यह केवल आलोचना नहीं थी, यह थी एक जनमत गढ़ने की सोची-समझी साजिश, ताकि देश की जनता एक संभावित विकल्प को पूरी तरह खारिज कर दे।
बार-बार उन्हें “राजकुमार”, “बेरोज़गार नेता”, “विदेशी एजेंट” कहकर उनका चरित्र बिगाड़ने की कोशिश की गई। भाजपा समर्थित सोशल मीडिया ट्रोल सेना ने उन्हें हर बार निशाने पर लिया, जब भी उन्होंने सरकार से जवाब माँगा। झूठे वीडियो, एडिट की गई क्लिप्स और फर्जी आरोपों की बाढ़ सी आई। जो नेता संसद में लगातार महत्वपूर्ण मुद्दों पर आवाज़ उठाता रहा, उसे गैरजिम्मेदार और हास्यास्पद साबित किया गया।
विदेशी मीडिया ने जिस यात्रा को ऐतिहासिक बताया, भारतीय मीडिया ने उस पर मौन साध लिया। लोकतंत्र में विपक्ष का मज़बूत होना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है कि मीडिया निष्पक्ष रहे, लेकिन यहाँ मीडिया सत्ता की ताकत का औजार बन गया। राहुल गांधी को बदनाम करने का यह षड्यंत्र सिर्फ एक व्यक्ति पर हमला नहीं था, यह था विकल्प पर हमला, जनमत पर हमला, लोकतंत्र की आत्मा पर हमला। एक ऐसा नेता जो लगातार मोहब्बत, भाईचारे और संवैधानिक मूल्यों की बात करता रहा, उसे कटघरे में खड़ा करने के लिए पूरे सिस्टम ने मिलकर उसे अक्षम साबित करने की साज़िश रची। और ये सब तब हुआ जब असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की जरूरत थी। ऐसे माहौल में राहुल गांधी की संघर्षशील छवि और जनता से उनका जुड़ाव एक नई उम्मीद की तरह उभरा है ।
2014 के चुनाव में कांग्रेस को जबरदस्त पराजय मिली। यह वह दौर था जब अधिकांश लोग मान चुके थे कि राहुल गांधी अब राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो चुके हैं। लेकिन 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव और फिर 2018 में कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की वापसी ने दिखाया कि राहुल गांधी की रणनीति ज़मीन पर असर कर रही है। उन्होंने नोटबंदी, जीएसटी, बेरोज़गारी, किसानों की समस्याओं, शिक्षा और संस्थाओं की स्वतंत्रता जैसे मसलों पर नरेंद्र मोदी सरकार को आक्रामक रूप से घेरा। संसद में उन्होंने ‘राफेल डील’ को लेकर पीएम मोदी पर सीधे सवाल खड़े किए और उनके सामने गले लगकर सियासी परंपरा को एक नया मोड़ दिया। और भारत जोड़ो यात्रा: मोहब्बत का सफर 2022 में जब राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से कश्मीर तक 4000 किलोमीटर लंबी भारत जोड़ो यात्रा शुरू की, तो इसे लेकर कई तरह की शंकाएँ जताई गईं। लेकिन यह यात्रा एक राजनीतिक कार्यक्रम से अधिक एक जनआंदोलन के रूप में उभरी। उन्होंने इस यात्रा में किसानों, बेरोजगार युवाओं, आदिवासियों, महिलाओं, छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से सीधे संवाद किया। यात्रा का नारा ‘नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान’ देश भर में गूंजने लगा।
इस यात्रा के दौरान राहुल गांधी का वह चेहरा सामने आया जो कभी कुली बना, कभी मिस्त्री, कभी मछुआरे के साथ समुद्र में उतरा तो कभी बच्चों के साथ चित्र बनाते दिखा। यह किसी राजनेता की रणनीति नहीं, बल्कि एक नागरिक के रूप में समाज को समझने की सच्ची कोशिश थी। यात्रा के बाद आई जनता की प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि राहुल गांधी अब सिर्फ एक राजनेता नहीं, बल्कि एक विचार बन चुके हैं। उन्होंने लोगों को यह यकीन दिलाया कि राजनीति अब भी संवेदनशील हो सकती है, ईमानदार हो सकती है और इंसानियत के साथ खड़ी रह सकती है।
यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने लगभग 118 जनसभाएं कीं, 12 प्रेस कॉन्फ्रेंस, 250 से अधिक जन-संवाद कार्यक्रम और 21 से अधिक मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे-विहार में दर्शन किए। उनके साथ लाखों लोगों ने कदम मिलाए, जिनमें बुज़ुर्ग महिलाएं, युवा छात्र, विकलांग नागरिक, सामाजिक कार्यकर्ता और आम ग्रामीण जनता शामिल थी। यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं थी, यह सामाजिक ध्रुवीकरण के विरुद्ध एक सांस्कृतिक अभियान था।
नवीन राजनीति की तलाश
2024 के आम चुनाव में भले ही कांग्रेस को पूर्ण सफलता न मिली हो, लेकिन राहुल गांधी ने विपक्ष को एकजुट करने, संविधान को केंद्र में रखने और भारत को एकजुट रखने की दिशा में एक वैकल्पिक राजनीति की बुनियाद रख दी है। I.N.D.I.A गठबंधन की अवधारणा, विपक्षी नेताओं के साथ लगातार संवाद, जनहित से जुड़े मुद्दों को प्राथमिकता और सरकार से असहमति जताने की नैतिकता – ये सब उनकी नवीन राजनीति की पहचान बन चुके हैं। राहुल गांधी अब ‘डरपोक नेता’ की उस छवि को तोड़ चुके हैं जो उन्हें वर्षों से दी जा रही थी। उन्होंने साबित किया है कि राजनीतिक लड़ाइयाँ केवल चुनावी रणनीतियों से नहीं, बल्कि जनसरोकार, संवेदना और वैचारिक स्पष्टता से लड़ी जाती हैं। वे सत्ता की राजनीति में भले पिछड़ जाएं, लेकिन देश की जनता के मन में एक ईमानदार विपक्ष के प्रतीक के रूप में स्थापित हो चुके हैं।
आज जब राजनीति में भाषा की मर्यादा टूट रही है, जब संस्थाएं दबाव में हैं, जब नफरत और धार्मिक ध्रुवीकरण को मुख्यधारा बनाया जा रहा है – उस समय राहुल गांधी का मोहब्बत का कारवां एक उम्मीद की किरण है। उन्होंने जनता से जुड़कर यह सिद्ध किया है कि राजनीति का मकसद सिर्फ सरकार बनाना नहीं, समाज को जोड़ना भी होता है।
राहुल गांधी के उस रूप को समझने का प्रयास है जो अपने भीतर एक संवेदनशील नागरिक, एक जुझारू जननेता और एक ईमानदार विचारक को समेटे हुए है। संसद की बहसों से लेकर भारत जोड़ो यात्रा तक, हर कदम पर उन्होंने यह दिखाया है कि वे सत्ता के लिए नहीं, समाज के लिए लड़ रहे हैं – और शायद यही वजह है कि देश के कोने-कोने में आज भी कोई न कोई व्यक्ति कह रहा है: “हम भी मोहब्बत की दुकान खोलेंगे।” इस प्रेम, संवेदना और समावेश की राजनीति के सामने आज की नफरत, हिंसा और ट्रोल संस्कृति बौनी पड़ती दिखती है। जबकि विरोधी उन्हें कमजोर दिखाने में लगे हैं, वे अपने तरीक़े से एक ऐसा भारत रच रहे हैं जो डर से नहीं, साझी संस्कृति और संवेदनशीलता से चले। उनकी मोहब्बत की दुकान कोई दुकान नहीं, एक आंदोलन है—एक विचार है—जो बताता है कि सत्ता से बड़ा देश होता है, पद से बड़ी सेवा होती है और नफरत से बड़ी होती है मोहब्बत। और यही राहुल गांधी की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरी है—एक ऐसी ताक़त जो संसद से नहीं, जनता के दिलों से निकलती है।
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