मधुशाला नहीं पाठशाला चाहिए

मितेंद्र गुप्ता | उत्तर प्रदेश में शिक्षा और सामाजिक नीति के दो छोरों पर खड़ी दो तस्वीरें आजकल चर्चा में हैं एक तरफ सरकार 27,000 से अधिक सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को मर्ज करने की योजना बना रही है, तो दूसरी तरफ प्रदेश में शराब की दुकानों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। यह विरोधाभास न केवल प्रदेश की प्राथमिकताओं पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि समाज के भविष्य, बच्चों की शिक्षा और नैतिक दिशा को लेकर गहरी चिंता भी उत्पन्न करता है।
उत्तर प्रदेश सरकार का कहना है कि जिन 27,000 विद्यालयों को मर्ज किया जा रहा है, उनमें छात्रों की संख्या 100 से कम है और शिक्षकों की संख्या अपेक्षाकृत अधिक है। सरकार की इस नीति का तर्क यह है कि संसाधनों का बेहतर उपयोग किया जा सके, और शिक्षकों की संख्या 20 छात्रों पर एक शिक्षक के अनुपात में तय हो। पहली दृष्टि में यह नीति तर्कसंगत प्रतीत होती है, लेकिन जब हम इसके गहरे सामाजिक और भौगोलिक आयामों की ओर देखते हैं, तो कई सवाल उठ खड़े होते हैं।ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में जहां स्कूलों की भौगोलिक पहुंच ही एक बड़ी चुनौती है, वहां स्कूलों का विलय बच्चों की शिक्षा में बड़ी बाधा बन सकता है। कई बार एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचना बच्चों के लिए आसान नहीं होता — खराब सड़कों, असुरक्षा, मौसम और आर्थिक कारणों से वे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। ऐसे में पास के प्राथमिक विद्यालयों का बंद होना या मर्ज किया जाना बच्चों को स्थायी रूप से स्कूल से बाहर कर सकता है।
स्कूल बंद, लेकिन शराब की दुकानें चालू : दूसरी ओर, प्रदेश में शराब की दुकानों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है। वर्ष 2024-25 की तुलना में सत्र 2025-26 में अधिक लाइसेंस जारी किए गए हैं। नयी शराब की दुकानों के खुलने से सरकार को राजस्व तो जरूर मिलेगा, लेकिन इस राजस्व की सामाजिक लागत कितनी अधिक है, यह शायद नीति निर्धारकों की दृष्टि से ओझल है।
शिक्षा को खर्च नहीं, निवेश मानें : उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहां सामाजिक-आर्थिक असमानताएं बहुत व्यापक हैं, वहां शिक्षा ही समाज को बराबरी और आत्मनिर्भरता की ओर ले जाने वाला एकमात्र मार्ग है। ऐसे में स्कूलों को बंद करना या मर्ज करना किसी भी दृष्टिकोण से दूरदर्शिता नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा को खर्च नहीं, बल्कि निवेश माने।
शराब की दुकानें — लाभ या सामाजिक विनाश? : सरकार शराब की दुकानों से मिलने वाले राजस्व को विकास के नाम पर जायज ठहराती है, लेकिन यह विकास किसका है? समाज के कमजोर वर्गों को जब शराब आसानी से उपलब्ध होती है, तो उसके सामाजिक दुष्परिणाम अत्यंत भयावह होते हैं।
यह केवल नारा नहीं, चेतावनी है : यह केवल एक नारा नहीं है, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है। समाज को यह तय करना होगा कि वह अपनी अगली पीढ़ी को कैसा भविष्य देना चाहता है। क्या हम उन्हें शिक्षा से जोड़कर आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं या उन्हें नशे की राह पर ले जाकर बबार्दी की ओर धकेलना चाहते हैं?
इन समस्याओं का समाधान स्कूल बंद करने से नहीं, बल्कि उन्हें बेहतर बनाने से होगा। और साथ ही, समाज को भी जागरूक होना होगा। हमें सरकार से यह मांग करनी होगी कि वह ह्यमधुशाला नहीं, पाठशालाह्ण को प्राथमिकता दे। क्योंकि जब शिक्षा मजबूत होगी, तभी समाज भी मजबूत होगा — और तभी एक सशक्त, आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार होगा।
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