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महंगाई, बेरोजगारी की नहीं होगी चोट, धर्म के नाम पर गिरेगी वोट !

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– 2014 के बाद से सिर्फ एक ही मुद्दा हावी रहता आ रहा चुनाव में
– गठबंधन में बदले साथी, पहले साथ तो अब अकेला चलेगा हाथी


अनुज मित्तल (समाचार संपादक)

मेरठ। चुनाव लोकसभा का हो या विधानसभा का, यूपी में सिर्फ एक ही मुद्दा हावी रहता है। वह मुद्दा है संप्रदाय और धर्म के साथ जाति का। इसके अलावा यहां कभी विकास, बेरोजगारी, महंगाई या कानून व्यवस्था जैसे मुद्दे सिर्फ नेताओं के भाषणों तक सीमित रहते हैं, लेकिन वोटर इससे अलग ही चलते हुए अपना वोट डालता है। इस बार का चुनाव भी कुछ अलग होगा, ऐसा नहीं लगता है। हालांकि इस बार गठबंधन के साथी जरूर अलग हो गए हैं, लेकिन इससे समीकरण बदलते नजर नहीं आ रहे हैं।

बात 2014 से लेकर अब तक लोकसभा और विधानसभा चुनाव की करें तो गठबंधन भी हुए और टूटे भी। गठबंधन के बाद कागजों में समीकरण बदले हुए नजर आए, लेकिन धरातल पर यह समीकरण धराशायी हो गए। सिर्फ एक मुद्दा ही हर चुनाव में नजर आया, वह था धर्म और जाति का। वोटर ने इसे देखकर ही वोट दिया।

2014 के लोकसभा चुनाव से पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश जहां मुजफ्फरनगर दंगे की तपिश झेल रहा था, तो पूरे यूपी की नजर इस पर थी। इसी को भुनाने के लिए भाजपा ने एक तुरुप का इक्का चला और तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के चेहरे के रूप में मैदान में उतार दिया। इसका परिणाम ये हुआ कि लोकसभा चुनाव में यूपी में भाजपा ने रिकार्ड 72 सीटें जीतकर एक तरफ परचम लहरा दिया। इस चुनाव में सिर्फ धर्म ही मुद्दा बनकर सामने आया।

इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही हुआ। इस बार चुनाव में सपा और कांग्रेस ने गठबंधन किया, लेकिन उसका कोई असर नजर नहीं आया। भाजपा ने एक तरफा जीत हासिल करते हुए पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई। 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी सरकार के कामकाज पर तताम सवाल उठाते हुए दावे किए जा रहे थे। इस बार गठबंधन में सपा, बसपा और रालोद एक साथ थे, जबकि कांग्रेस अकेले चुनाव मैदान में थी।

क्योंकि कांग्रेस का जनाधार यूपी से लगभग सिमट चुका है तो सपा, बसपा और रालोद के साथ आने से कागजों में भाजपा बेहद कमजोर लग रही थी। इसका बड़ा कारण मुस्लिम, दलित और जाट मतों के धु्रवीकरण के साथ ही प्रत्याशी के सजातीय वोट पाते हुए लोग चुनावी समीकरण तैयार कर रहे थे। लेकिन इस गठबंधन का भी कोई असर नहीं हुआ। मात्र 15 सीटें ही इस गठबंधन को मिली। इसके बाद 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा गठबंधन से अकेले होकर चुनाव लड़ी, लेकिन इससे उसका हश्र और ज्यादा बुरा हुआ और सपा-रालोद मिलकर भी भाजपा को पटखनी नहीं दे पाए।

इस बार गठबंधन के कागजी समीकरण फिर बने और बिगड़े हैं। 2019 में जहां राजग में भाजपा, अपना दल एस, निषाद पार्टी शामिल थे, तो विपक्षी गठबंधन में सपा, बसपा, रालोद शामिल थे और कांग्रेस अकेले चुनाव लड़ी थी। इस बार राजग में भाजपा, अपना दल एस, निषाद पार्टी, सुभासपा और रालोद शामिल हैं। जबकि विपक्षी गठबंधन में सपा और कांग्रेस हैं। बसपा इस बार अकेले चुनाव मैदान में है।

ऐसे में इस बार के गठबंधन पर अगर नजर डालें तो कागजों में भी राजग ही मजबूत नजर आ रहा है। लेकिन बात अगर चुनावी मुद्दे की करें तो राम मंदिर बन चुका है, गन्ना भुगतान की समस्या जस की तस है, किसान आंदोलन की राह पर हैं। विकास कार्य हो रहे हैं, बेरोजगारी का कोई ठोस हल आज तक नहीं निकला है। शिक्षा में भी कोई अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। लेकिन ये सब मुद्दे मतदान के दिन पूरी तरह हवा हवाई नजर आएंगे। चलेगा तो इस बार भी सिर्फ एक ही मुद्दा और वह रहेगा जाति और धर्म का।

प्रत्याशी चयन में भी साधे जा रहे जातीय समीकरण

राजनीतिक दल भी जानते हैं कि मुद्दा जाति और धर्म ही रहेगा। तो ऐसे में सभी अपने-अपने प्रत्याशी चयन में उस लोकसभा क्षेत्र के जातिय समीकरण को ध्यान में रखते हुए ही प्रत्याशी तय कर रहे हैं।

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