शिक्षा का व्यापार बनता भारत: हाईकोर्ट की फटकार और गिरती हुई शिक्षा।

एडवोकेट आदेश प्रधान | जब शिक्षा मंदिर की जगह मंडी बन जाए, शिक्षक व्यापारी और छात्र ग्राहक बन जाएं — तब समझिए कि किसी सभ्यता की आत्मा संकट में है। हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने निजी स्कूलों की मनमानी फीस वसूली, बाउंसरों के जरिए छात्रों और अभिभावकों पर दबाव बनाने और शिक्षा को एक व्यवसायिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने पर तीखी फटकार लगाई। इस निर्णय ने एकबार फिर पूरे देश के समक्ष एक कड़वा सच रखा — भारत में निजी शिक्षा अब सेवा नहीं, एक निर्मम व्यापार बन चुकी है।
हाईकोर्ट की टिप्पणी: न्याय की पुकार या शिक्षा व्यवस्था पर तमाचा?
दिल्ली उच्च न्यायालय ने साफ कहा कि स्कूल फीस वसूली के लिए स्कूल अमानवीय और अपमानजनक तरीके नहीं अपना सकते। कोर्ट ने यह भी कहा कि स्कूलों को ‘व्यवसायिक उद्यम’ के रूप में नहीं चलाया जा सकता। इस टिप्पणी का सीधा संकेत था उन तथाकथित प्रतिष्ठित स्कूलों की ओर, जो बच्चों को ज्ञान नहीं, माता-पिता को गुमान बेचते हैं। फीस वसूली के लिए बाउंसर रखना और छात्रों को डराना न सिर्फ नैतिक पतन का संकेत है, बल्कि शिक्षा के धर्म की हत्या है।
यह है मामला: बाउंसर, फीस और शिक्षा का अपमान
डीपीएस गाज़ियाबाद जैसे प्रतिष्ठित स्कूल में यह मामला तब सामने आया जब फीस न चुकाने पर छात्रों को स्कूल से निकालने की धमकी दी गई और स्कूल में बाउंसरों की तैनाती कर दी गई। अभिभावकों ने यह मुद्दा अदालत में उठाया और न्यायालय ने सख्त रुख अपनाते हुए यह स्पष्ट किया कि स्कूल बच्चों और अभिभावकों के साथ इस तरह का व्यवहार नहीं कर सकते। क्या यह वही भारत है जहां ‘विद्या दान’ को सबसे बड़ा दान माना गया था?
कटाक्ष: ‘विद्यालय’ या ‘व्यवसाय स्थल’?
आज के निजी स्कूलों को देखकर अक्सर भ्रम होता है कि यह विद्यालय हैं या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कार्यालय। नाम बड़े और दर्शन छोटे — स्कूलों की वेबसाइटों पर विदेशी सुविधाएं, आईबी बोर्ड, रोबोटिक्स लैब, एसी क्लासरूम और स्टील की तरह चमकता कैंपस। लेकिन अंदर प्रवेश करते ही असली एजेंडा सामने आता है — पैसा दो, तब ही शिक्षा मिलेगी। अब शिक्षा किसी साधना की नहीं, निवेश की वस्तु बन चुकी है। शिक्षकों को कर्मचारी बना दिया गया है, और छात्रों को “ब्रांड एम्बेसडर”।
फीस का फंदा: मासिक शुल्क या मासूमों की लूट?
स्कूलों में मासिक फीस के नाम पर ट्यूशन फीस, स्मार्ट क्लास, कंप्यूटर लैब, स्पोर्ट्स फीस, वैन फीस, एडमिशन फीस, वार्षिक शुल्क, री-एडमिशन चार्ज, डेवलपमेंट फीस, और भी बहुत कुछ — यहाँ तक कि छात्रों की परीक्षा में फेल होने की फीस भी होती है! कोई पूछे कि यह कैसी “ज्ञान की सेवा” है जिसमें एक किसान का बच्चा सिर्फ इसलिए स्कूल से बाहर हो जाता है क्योंकि वह हर महीने ₹5000 नहीं चुका सका?
मिशनरी स्कूल से मुनाफा स्कूल तक: शिक्षा का पराभव
भारत में शिक्षा का निजीकरण एक ज़रूरत के रूप में शुरू हुआ था — सरकार की असमर्थता और संसाधनों की कमी के चलते निजी क्षेत्र को सहयोग देना पड़ा। लेकिन जब इस आवश्यकता को नीतिगत प्रोत्साहन मिला और शिक्षण संस्थान को “उद्योग” घोषित किया गया, तब से शिक्षा का पराभव शुरू हो गया। आज स्कूल खोलना रियल एस्टेट से अधिक मुनाफे का सौदा बन चुका है।
बच्चे नहीं, नंबर का सामान हैं
निजी स्कूलों में बच्चों को भावनात्मक, सामाजिक और रचनात्मक विकास से ज़्यादा परीक्षा में लाने वाले नंबरों की मशीन बना दिया गया है। स्कूलों का ध्यान अब “रिजल्ट रैंकिंग” पर है, न कि “स्टूडेंट वेलफेयर” पर। जिस बच्चे को स्कूल की फीस भरने में कठिनाई हो, उसे ‘कमजोर आर्थिक वर्ग’ नहीं, ‘असुविधाजनक ग्राहक’ समझा जाता है।
अभिभावकों की पीड़ा: सम्मान नहीं, अपमान का सामना
बच्चों के भविष्य के लिए अभिभावक जैसे-जैसे फीस की रकम चुकाते हैं, वैसे-वैसे उनकी गरिमा घटती जाती है। फीस न भर पाने की स्थिति में उन्हें स्कूल गेट पर रोका जाता है, उनके बच्चों को क्लास में बैठने नहीं दिया जाता, और बाउंसर जैसे पेशेवर गुंडों के जरिए डराया जाता है। क्या हम एक शिक्षित लोकतंत्र में रह रहे हैं या किसी जागीरदार युग में जहाँ शिक्षा पाने के लिए ‘मोल’ देना पड़ता है?
‘जनता का स्कूल’ अब ‘जन से दूर’
जब राज्य अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाता है, तो जनता को मजबूरन बाजार के हवाले होना पड़ता है। सरकारी स्कूलों की बदहाली ने ही निजी स्कूलों को जन्म दिया। लेकिन आज हालत यह है कि एक रिक्शेवाला, मजदूर, या सीमांत किसान भी अपने बच्चे को निजी स्कूल में भेजना चाहता है — सिर्फ इसलिए ताकि समाज में उसे नीचा न समझा जाए। शिक्षा अब योग्यता नहीं, सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन चुकी है।
शिक्षा विधेयक में जनभागीदारी की कमी
हाईकोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि शिक्षा विधेयक में अभिभावकों की आवाज़ भी शामिल होनी चाहिए। आज स्कूल मैनेजमेंट और बोर्ड की बैठकें बंद दरवाजों में होती हैं। अभिभावक केवल फीस भरने वाले उपभोक्ता बना दिए गए हैं। क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था की अवहेलना नहीं?
समाधान की दिशा: शिक्षा को सेवा मानो, सौदा नहीं
अगर भारत को वास्तव में “विश्वगुरु” बनाना है, तो शिक्षा को पुनः उस स्थान पर ले जाना होगा जहाँ यह सेवा थी, सौदा नहीं।
जब सरकार में बैठे मंत्री, विधायक, या उच्च अधिकारी खुद निजी स्कूल चलाते हैं या उनकी साझेदारी में होते हैं, तब शिक्षा नीति में पारदर्शिता की अपेक्षा करना एक भ्रम बन जाता है। वे नियम बनाते हैं, अनुदान तय करते हैं, फीस नियमन आयोग नियुक्त करते हैं, और साथ ही उन नियमों से स्वयं को मुक्त भी रखते हैं।
कई राज्यों में शिक्षा मंत्रियों या उनके परिजनों के नाम पर संचालित स्कूल हैं।
शिक्षा बोर्ड या निजी विश्वविद्यालयों के ट्रस्ट में राजनीतिक परिवारों की हिस्सेदारी दर्ज है।
सरकार की ओर से बनाए गए नियम जैसे:
निजी स्कूलों की फीस सीमा निर्धारण
RTI के तहत पारदर्शिता समाप्त – गरीब छात्रों के लिए 25% आरक्षण (RTE अधिनियम) – इनका पालन कागज़ों पर ही होता है, ज़मीनी स्तर पर कोई कार्यवाही नहीं होती। कारण स्पष्ट है: नियमों का उल्लंघन करने वाले स्वयं शासक वर्ग हैं।
न्यायपालिका ही अंतिम उम्मीद क्यों?
जब कार्यपालिका और विधायिका शिक्षा के व्यापार में लिप्त हों, तब जनता को न्यायपालिका की शरण में जाना पड़ता है। दिल्ली हाई कोर्ट का हालिया फैसला इसी का उदाहरण है — अभिभावकों को स्कूल प्रशासन के खिलाफ अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा क्योंकि शिक्षा विभाग ने आंखें मूँद रखी थीं।
शिक्षा व्यवस्था का राजनीतिक निजीकरण:
स्कूल और कॉलेज अब राजनीतिक नेताओं के वोट बैंक और मुनाफे के साधन बन गए हैं।
कई नेताओं ने अपने प्रभाव क्षेत्र में “शिक्षा का साम्राज्य” खड़ा कर रखा है — स्कूल, बी.एड कॉलेज, इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट, मेडिकल कॉलेज, सबकुछ उनके “परिवार ट्रस्ट” के नाम पर।
इन्हीं के दम पर उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा भी मिलती है और आर्थिक शक्ति भी है
लोकतंत्र के लिए यह संकट क्यों है?
शिक्षा वह क्षेत्र है जो लोकतंत्र की नींव तैयार करता है। यदि इसी को भ्रष्टाचार और मुनाफाखोरी की भेंट चढ़ा दिया जाए तो न सिर्फ असमानता बढ़ेगी, बल्कि आने वाली पीढ़ियाँ केवल ‘कंज़्यूमर’ बनेंगी, नागरिक नहीं।
जब शासन में बैठे लोग खुद इस समस्या का हिस्सा हों, तो जनता को जागरूक होकर भी दबाव बनाना होता है:
ऐसे स्कूलों की सूची मांगी जाए जो मंत्रियों या नेताओं से जुड़े हैं। नेताओं के स्कूलों में ज्यादा अत्याचार, मनमानी फीस, अमानवीय व्यवहार किया जाता है
शिक्षा को ‘राजनीतिक लाभ’ से अलग किया जाए:
जिस हाथ में कलम होनी चाहिए, उस हाथ में जब स्कूल की रजिस्ट्रेशन सील आ जाए, तब जनता को ही आवाज़ उठानी पड़ती है। शिक्षा केवल किताबों की बात नहीं है — यह एक राजनीतिक मुद्दा है और जब तक जनता इसे चुनावी एजेंडा नहीं बनाएगी, तब तक कोई मंत्री अपने स्कूल पर ताला नहीं लगाएगा।
“जब तक शिक्षा व्यापार है, तब तक मंत्री व्यापारी हैं — और व्यापारी से आप शिक्षा की नैतिकता की उम्मीद नहीं कर सकते।”
इसके लिए निम्नलिखित कदम ज़रूरी हैं:
1. शिक्षा का पूर्ण रूप से विनियमन: प्रत्येक निजी स्कूल को अपने आय-व्यय का सार्वजनिक ब्यौरा देना अनिवार्य हो।
2. अभिभावक परिषद की स्थापना: हर स्कूल में एक पेरेंट कमेटी हो जिसका निर्णय स्कूल प्रशासन पर बाध्यकारी हो।
3. शिक्षा मंत्रालय की जवाबदेही: केंद्र और राज्य शिक्षा विभागों को जवाबदेह बनाना होगा कि सरकारी स्कूलों की दशा क्यों नहीं सुधर रही।
4. न्यूनतम और अधिकतम फीस तय: निजी स्कूलों के लिए राज्य सरकार द्वारा फीस की सीमा निर्धारित की जाए।
5. बच्चों के मूल अधिकार की रक्षा: किसी भी छात्र को फीस न चुकाने के कारण शिक्षा से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 21A का उल्लंघन है।
शिक्षा मंदिर बने, व्यापार नहीं
जब न्यायालय को यह कहना पड़े कि “बच्चों पर दबाव डालने के लिए बाउंसर रखना अमानवीय है”, तब यह किसी देश के शिक्षा तंत्र पर एक गहरा तमाचा है। यह महज कानूनी टिप्पणी नहीं, यह उस सामाजिक पतन की पुष्टि है जिसे हम सामान्य मान चुके हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि देश एकजुट होकर यह तय करे — क्या हम आने वाली पीढ़ियों को ‘संवेदनशील नागरिक’ बनाना चाहते हैं या ‘संख्यात्मक उत्पाद’?
हाईकोर्ट की टिप्पणी न केवल एक निर्णय है, बल्कि एक चेतावनी है — यदि हमने शिक्षा को बाज़ार से निकालकर समाज की धारा में नहीं डाला, तो आने वाली पीढ़ियाँ ज्ञान नहीं, घृणा से भरी होंगी।
“जिस समाज में शिक्षा बिकती है, वहाँ इंसानियत मरती है।”
इसलिए अब भी समय है — शिक्षा को पुनः उसके मूल धर्म में लौटाया जाए — सेवा, समानता और स्वाभिमान। तभी बिरसा मुंडा, सावित्रीबाई फुले, और डॉ. अंबेडकर जैसे शिक्षानायकों की आत्मा को शांति मिलेगी।
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