हिंदी दिवस विशेष: माता-पिता ही बच्चों को दूर कर रहे मात्रभाषा से

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शारदा न्यूज रिपोर्टर

मेरठ। हिंदी दिवस के अवसर पर पूरे शहर में विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। इस दौरान आज की पीढ़ी हिंदी से दूर क्यों हो रही है इसको लेकर भी चर्चा की गई। जबकि आज हिंदी भारत में ही नकारने जैसे गंभीर विषय पर मंथन किया गया।
हिंदी भले ही बोलचाल में कम नहीं हो, लेकिन कामकाज की भाषा आज भी अंग्रेजी ही बनकर रह गई है। इसका कारण हमारी खुद की मानसिकता है।

प्रो. प्रशांत कुमार का कहना है कि आज के दौर में माता-पिता ही नहीं चाहते कि उनका बच्चा हिंदी बोले और पढ़े। लोग आज भी हिंदी की बजाय अंग्रेजी में ही कामकाज को बढ़ावा देते हैं। जब तक हम खुद शुरूआत नहीं करते तब तक हिंदी अनदेखी का शिकार होती रहेगी। हिंदी भाषा के अस्तित्व को बचाने के लिए इसके व्यापक प्रचार प्रसार से ज्यादा खुद में बदलाव लाकर हिंदी को बढ़ावा देने की पहल करनी होगी। विश्व हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में बुद्धिजीवियों ने अपने विचार रखे।

चौधरी चरण सिंह विवि के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. नवीन चंद लोहनी ने कहा कि इस दिवस को मनाने के पीछे उद्देश्य यही था कि वैश्विक स्तर पर हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा सके। इसके लिए भारतीय प्रवासियों के बीच और विश्व में हिंदी प्रयोगकतार्ओं के बीच हिंदी को अधिक पहुंचाने के लिए सरकार द्वारा भी प्रयास किए गए और विश्व स्तर पर हिंदी के शिक्षण, अनुवाद और मीडिया, फिल्मों और सोशल मीडिया में प्रयोग बढ़ाने के प्रयास शामिल है। विदेश के हिंदी प्रयोगकतार्ओं, प्रवासियों द्वारा हिंदी को बढ़ावा देने के प्रयास भी हुए हैं। भारतीय भाषाओं, भारतीयों को दुनिया में गंभीरता से लिया जा रहा हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि भारत में हिंदी रोजगार और शिक्षण माध्यम नहीं बन पाई है। इसलिए विश्व में जो प्रगति हिंदी की हो सकती थी वह नहीं हो पा रही है। इसके लिए आवश्यक होगा कि हिंदी को भारत में रोजगार और शिक्षण का माध्यम बनाया जाए।

चौधरी चरण सिंह विवि के पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. प्रशांत कुमार ने बताया कि हिंदी का अस्तित्व खतरे में है। इसके के लिए जिम्मेदार हिंदी भाषी लोग यानी हम खुद हैं। हिंदी भाषा की तरफ हमारा ध्यान ही नहीं है। यह आज दोयम दर्जे की भाषा बनकर रह गई है। दूसरे देशों में हिंदी भाषा के प्रति लोगों में प्रेम हमारे से कहीं ज्यादा है। हिंदी भाषा का प्रचलन खत्म न हो इसके लिए जगह-जगह पर विशेष कक्षाएं लगाई जा रही हैं। हमारी मानसिकता ये बन गई है कि विदेश में यदि हम अंग्रेजी में बात नहीं करेंगे तो हमारा सम्मान कम हो जाएगा। हिंदी भाषा के लिए हमें खुद काम करना होगा।

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