Tuesday, June 17, 2025
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चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय: जब शिक्षा पर भारी पड़ने लगे जातीय वर्चस्व

आदेश प्रधान एडवोकेट | चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, जो कभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उच्च शिक्षा का गौरव माना जाता था, आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ शिक्षा से ज़्यादा चर्चा जातीय वर्चस्व की हो रही है। विशेष रूप से जाट और गुर्जर समुदायों के बीच उभरता टकराव न सिर्फ शैक्षणिक माहौल को विषाक्त बना रहा है, बल्कि छात्रों के भविष्य पर भी एक स्थायी प्रश्नचिह्न लगा चुका है। यह संघर्ष विचारों का नहीं, वर्चस्व का है — और इस लड़ाई की सबसे बड़ी कीमत चुका रहे हैं वे छात्र, जो शिक्षा के लिए यहाँ आए थे, न कि किसी जातीय मोर्चेबंदी का हिस्सा बनने।

– आदेश प्रधान एडवोकेट

छात्र एकता का पतन: ‘फूट डालो, राज करो’ की वापसी

जातीय विभाजन का सबसे बड़ा नुकसान छात्र एकता को होता है। जहाँ एकजुट छात्र प्रशासनिक भ्रष्टाचार और अकादमिक लापरवाही के खिलाफ एक ताकत बन सकते थे, वहीं अब वे जातिगत पहचान की दीवारों में कैद हो गए हैं। इसका सीधा फायदा उठाता है विश्वविद्यालय प्रशासन — जो चुपचाप ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति पर चलता हुआ अपनी जवाबदेही से बच निकलता है।

प्रशासन की चुप्पी: निष्क्रियता या मौन सहमति?

जिस वक्त विश्वविद्यालय में जातीय टकराव चरम पर होता है, उस वक्त प्रशासन या तो मौन रहता है या फिर इतनी धीमी प्रतिक्रिया देता है कि वह एक तरह से अप्रत्यक्ष समर्थन जैसा प्रतीत होता है। छोटी घटनाओं को नजरअंदाज़ करने की इसी नीति ने बड़े टकरावों की नींव रखी है।
शायद यह भी एक रणनीति है — जब छात्र आपस में उलझे हों, तो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ओर अधिकारियों का काम आसान हो जाता है । जातिगत लड़ाई में प्रोफेसर एवं अधिकारी अपने रोटियां अच्छे से पकाते हैं ।

राजनीतिक लाभ

जातीय संघर्ष में जहाँ छात्र मोहरे हैं, और हर जातीय टकराव एक नया समीकरण बनाता है।
नेताओं के लिए यह संघर्ष राजनीतिक लाभ का आधार बन जाता है, और प्रशासन के लिए राजनीतिक संरक्षण की गारंटी।

गुर्जर-जाट जातिगत टकराव में प्रॉक्टर बोर्ड की भूमिका 

चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में गुर्जर और जाट समुदायों के बीच जारी जातिगत टकराव के चलते परिसर का वातावरण तनावपूर्ण बना हुआ है। बीते कुछ समय में घटित घटनाओं ने शैक्षणिक वातावरण को प्रभावित किया है और विद्यार्थियों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है। विश्वविद्यालय में लगातार बढ़ती इन घटनाओं को लेकर प्रॉक्टर बोर्ड की भूमिका पर भी गंभीर सवाल उठने लगे हैं। कि प्रॉक्टर बोर्ड समय रहते हस्तक्षेप नहीं करता और अक्सर किसी अप्रिय घटना के घटित होने की प्रतीक्षा करता दिखाई देता है।

समय पर उचित कार्रवाई न होने के कारण हालात बिगड़ते हैं और स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती है। इससे न केवल विद्यार्थियों का मानसिक तनाव बढ़ता है, बल्कि शैक्षणिक गतिविधियाँ भी बाधित होती हैं।

बौद्धिक वर्ग की खामोशी

जिन शिक्षकों और प्रोफेसरों से उम्मीद होती है कि वे छात्रों का मार्गदर्शन करेंगे, वे भी इस पूरे घटनाक्रम में मूक दर्शक बन चुके हैं। उनके लिए यह संघर्ष न तो नैतिक संकट है, न ही अकादमिक पतन — बस एक तमाशा है जो रोज़ बदलते किरदारों के साथ चलता रहता है। यह चुप्पी, कहीं न कहीं, सहमति जैसी जान पड़ती है।

पुलिस की निष्क्रियता

छात्रों की शिकायतों, झगड़ों और गुटबाज़ी को अक्सर ‘आंतरिक मामला’ कहकर टालने वाली पुलिस तब तक हरकत में नहीं आती जब तक कि मामला मीडिया की सुर्खियाँ न बन जाए। यह रवैया न सिर्फ लापरवाही है, बल्कि उस ‘आश्वस्त व्यवस्था’ का भी संकेत है जो केवल तब हरकत में आती है जब दिखावा करना हो।

नतीजा: शिक्षा हारी, छात्र टूटे

जातीय राजनीति, प्रशासनिक निष्क्रियता, बौद्धिक वर्ग की चुप्पी और राजनीतिक दखल — ये सब मिलकर विश्वविद्यालय की आत्मा को कुचल रहे हैं। शिक्षा पीछे छूट गई है, और छात्रों का भविष्य एक धुंधलके में धकेल दिया गया है।

सोशल मीडिया  की भूमिका

इस पूरे घटनाक्रम में सोशल मीडिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आज का युवा वर्ग जिस तेजी से डिजिटल प्लेटफॉर्म से जुड़ा है, वहीं यह जुड़ाव कई बार गंभीर सामाजिक टकराव का कारण भी बन जाता है। झगड़े की शुरुआत के बाद दो छात्रों के बीच हुई, फेसबुक और व्हाट्सएप इंस्टाग्राम पर एक-दूसरे को निशाना बनाते हुए स्टोरीज और पोस्ट शेयर की गईं।

आक्रामक और जातीय भावनाएं भड़काने वाले गाने  जिनमें खुलेआम हिंसा, जातीय गर्व और दूसरे समुदायों के प्रति अपमान दर्शाया जाता है — ने माहौल को और उग्र बना दिया। ‘जाट पावर’, ‘गुर्जर एटिट्यूड’, जैसे टाइटल वाले गाने न केवल युवाओं को भड़काते हैं, बल्कि उनमें एक अलगाववादी मानसिकता को जन्म देते हैं। ये गाने मनोरंजन नहीं, बल्कि सामूहिक आक्रोश और टकराव को बढ़ाने के औजार बनते जा रहे हैं।

रील्स और शॉर्ट वीडियो के ज़रिए छात्रों ने अपने-अपने समुदाय के लिए समर्थन जुटाने का प्रयास किया, जिससे स्थिति और जटिल हो गई। जब शब्द और संगीत नफरत और श्रेष्ठता की भावना से भरे हों, तो वे संवाद की बजाय संघर्ष को जन्म देते हैं।

वास्तविक लड़ाई क्या है?

समस्या जातियों की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की है जो इन्हें लड़ाकर खुद को बचा लेती है।
समाधान तभी निकलेगा जब छात्र जातीय पहचान से ऊपर उठकर व्यवस्था की जवाबदेही, शैक्षणिक सुधार और भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट हो सकें।

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