Tuesday, July 1, 2025
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जनसूचना अधिकार अधिनियम का गला घोंटकर बनाई जा रही है ‘अंधी’ लोकतांत्रिक व्यवस्था”

भ्रमित सूचना, आधी सच्चाई, और जवाब देने से दूर होता लोकतंत्र —

जब सवाल भारी पड़ने लगें, तो सत्ता जवाब नहीं देती, बहाने ढूंढती है

– एडवोकेट आदेश प्रधान.

आदेश प्रधान एडवोकेट | जब वर्ष 2005 में भारत सरकार ने सूचना का अधिकार अधिनियम को लागू किया, तो यह मात्र एक विधिक दस्तावेज नहीं था, यह एक जनक्रांति की शुरुआत थी। यह वह क्षण था जब लोकतंत्र केवल मतपत्र तक सीमित नहीं रहा, बल्कि नागरिकों को यह संवैधानिक मान्यता दी गई कि वे जान सकें कि उनके नाम पर, उनके पैसों से, उनके जनप्रतिनिधि और अधिकारी कौन-कौन से निर्णय ले रहे हैं। उस दिन एक अदृश्य दीवार टूटी थी, सत्ता के बंद कमरों पर आमजन की दस्तक गूंजी थी, और लोकतंत्र पहली बार जनता के हाथ में एक उपकरण के रूप में आया था।

परंतु समय के साथ यही अधिकार सत्ता के लिए असुविधा का कारण बन गया। जो प्रश्न पहले जन-भागीदारी के प्रतीक थे, वे धीरे-धीरे शासन की नजर में अवांछनीय हो उठे। और तब शुरू हुआ एक अदृश्य परंतु तीव्र आघात, जो इस अधिनियम की आत्मा पर किया गया। अब उत्तर नहीं दिए जाते, भ्रम फैलाया जाता है। जब भ्रम पर्याप्त न हो, तब चुप्पी को हथियार बनाया जाता है। और इस पूरे परिदृश्य में सबसे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि यह प्रक्रिया व्यवस्थित और योजनाबद्ध है।

सूचना का अधिकार अधिनियम कोई अचानक लिखा गया कानून नहीं था। इसकी जड़ें एक छोटे-से गांव, देवडूंगरी, राजस्थान में पड़ी थीं, जहां मजदूरों ने मांग की थी कि उन्हें यह देखने दिया जाए कि उनके नाम पर सरकार ने कितना भुगतान किया है। मजदूर किसान शक्ति संगठन ने जब यह उजागर किया कि रजिस्टर में दर्ज नाम और भुगतान फर्जी हैं, तो पहली बार यह प्रश्न उठा कि आम नागरिक को यह जानने का अधिकार क्यों नहीं है कि शासन उसके नाम पर क्या निर्णय ले रहा है। यही वह क्षण था जब आंदोलन ने जन्म लिया। अरुणा रॉय, निखिल डे और अंजलि भारद्वाज जैसे निःस्वार्थ और संघर्षशील कार्यकर्ताओं ने इस आवाज को पूरे देश में गूंजाया। अंततः वर्ष 2005 में संसद ने इस ऐतिहासिक अधिनियम को पारित किया और नागरिकों को एक मजबूत विधिक शस्त्र प्रदान किया।

प्रारंभिक वर्षों में इस अधिनियम ने अद्भुत कार्य किए। नागरिकों ने इसे केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि कर्तव्य के रूप में अपनाया। प्रतिदिन हजारों आवेदन दाखिल होते रहे। सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लेकर पंचायतों की बैठकों तक, अस्पतालों से लेकर विश्वविद्यालयों के बजट तक, नागरिक हर मुद्दे पर जानकारी माँगने लगे। कई बार शासन के दामन पर पड़े दाग उजागर हुए। नरेगा योजना में हुए भ्रष्टाचार, स्कूलों में मिड डे मील में मिली गड़बड़ियों, जन वितरण प्रणाली में अनियमितताओं और सरकारी नियुक्तियों में हुए पक्षपात जैसे कई मुद्दों पर आरटीआई की रोशनी पड़ी। ऐसा प्रतीत हुआ कि भारत का लोकतंत्र सचमुच अब परिपक्व हो रहा है।

लेकिन यह सब सत्ताधीशों को रास नहीं आया। जिन्हें जवाबदेही निभानी थी, उन्होंने इसे बोझ समझा। सूचना का अधिकार अधिनियम धीरे-धीरे प्रशासन के लिए ऐसा दर्पण बन गया जिसमें वे अपनी असलियत नहीं देखना चाहते थे। और फिर शुरू हुआ वह खेल, जिसमें उत्तर देने से बचा जाने लगा। कभी यह कहा गया कि यह सूचना तीसरे पक्ष से जुड़ी है, कभी यह बताया गया कि अभिलेख उपलब्ध नहीं हैं। और जब यह सब नहीं चल पाया, तो उत्तर देने से ही इनकार कर दिया गया।

सरकारों ने एक और रणनीति अपनाई। सूचना आयोगों को कर्मचारीविहीन और वित्तविहीन बना दिया गया। आज देश के अनेक राज्यों में अपीलें वर्षों से लंबित हैं। आयोगों में रिक्तियाँ नहीं भरी जा रहीं। सुनवाई के नाम पर तिथियाँ बढ़ाई जा रही हैं, और जब कोई आदेश आता भी है तो उसे लागू कराने की कोई वैधानिक बाध्यता नहीं होती। इस प्रकार शासन ने यह सुनिश्चित कर लिया है कि आरटीआई नामक यह यंत्र निर्जीव बना रहे।

वर्ष 2019 में जब केंद्र सरकार ने आरटीआई अधिनियम में संशोधन कर केंद्रीय और राज्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, कार्यकाल और वेतन का निर्धारण अपने अधीन कर लिया, तब यह स्पष्ट हो गया कि अब शासन की मंशा इस अधिनियम को आत्महीन बनाने की है। इससे पहले तक सूचना आयुक्तों को न्यायाधीशों के समान दर्जा प्राप्त था, जिससे वे स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते थे। लेकिन अब वे सरकार की कृपा पर निर्भर हो गए हैं। यह न केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था का अपमान है, बल्कि संविधान में प्रदत्त स्वायत्त संस्थाओं की भावना का भी हनन है।

इस बीच सूचना छिपाने के ढेरों नए हथकंडे गढ़े गए। अब जवाब आता है, पर उसमें असल बात गोलमोल होती है। कभी जानकारी को गोपनीय करार दिया जाता है, कभी जवाब में कहा जाता है कि “सूचना उच्च अधिकारी की अनुमति के अधीन है।” यह वाक्य मेरे स्वयं के अनुभव में बार-बार आया है, जब मैंने चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से शिक्षक नियुक्तियों, विभागीय व्ययों और कार्यक्रमों में खर्च की जानकारी माँगी। अधिनियम की धारा 6 और 7 स्पष्ट करती हैं कि कोई भी नागरिक, किसी भी विभाग से, किसी भी स्तर की जानकारी आवेदन देकर मांग सकता है। अनुमति की शर्त जोड़ना इस अधिनियम की आत्मा को नष्ट कर देना है।

यही अनुभव मुझे जब फायर विभाग से सूचना मांगने पर हुआ, तब उत्तर मिला — “यह सूचना देने से देय नहीं है।” यह उत्तर न केवल दुर्भाग्यपूर्ण था, बल्कि नागरिकों के साथ किया गया एक प्रकार का मानसिक उत्पीड़न भी था। यह वही युग है जिसमें जवाब के नाम पर डर फैलाया जाता है।
आज स्थिति यह है कि आरटीआई कार्यकर्ता सबसे असुरक्षित हो चुके हैं। अब तक सैकड़ों कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं, हजारों को धमकियाँ दी गई हैं, और अनगिनत को झूठे मामलों में फँसाया गया है। प्रशासन और पुलिस अब कार्यकर्ता को देखती नहीं, बल्कि शक की नजर से जांचने लगती है। यह स्थिति न केवल लोकतंत्र के लिए खतरा है, बल्कि यह न्याय और उत्तरदायित्व के सिद्धांत को भी विकृत करती है।

कई बार तो सरकार यह तय करने लगती है कि कौन-सा प्रश्न राष्ट्रहित में है और कौन-सा राष्ट्रविरोध की परिभाषा में आता है। जब कोई नागरिक अस्पतालों की सुरक्षा के बारे में प्रश्न पूछता है, तो उस पर मानसिक दबाव बनाया जाता है। जब विश्वविद्यालय में व्यय की जानकारी माँगी जाती है, तो फाइलें इधर-उधर कर दी जाती हैं। और जब पुलिस विभाग से कार्रवाई की रिपोर्ट माँगी जाती है, तो कहा जाता है कि रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं।

यह लेख मात्र एक व्यक्ति का अनुभव नहीं है, यह उस तंत्र की व्यथा-कथा है, जो जनता की आँखों में झाँकने से डरता है। जब सवालों से सरकारें डरने लगें, तब यह मान लेना चाहिए कि शासन अब सेवा नहीं, नियंत्रण की भूमिका में है। सूचना का अधिकार केवल एक कागज़ी अधिकार नहीं था, यह नागरिक की शक्ति, उसकी जागरूकता और उसके विश्वास का प्रतीक था। आज जब इस अधिकार को क्रमशः क्षीण किया जा रहा है, तो इसका अर्थ यह नहीं कि नागरिक हार मान ले। बल्कि इसका सीधा अर्थ है कि अब और अधिक प्रश्न पूछे जाएँ, और अधिक आवेदन भेजे जाएँ, और अधिक निगरानी की जाए। जब सत्ता भ्रमित सूचना, आधी सच्चाई और चुप्पी के माध्यम से शासन चलाना चाहे, तब सूचना का अधिकार केवल एक कानून नहीं रहता, वह एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध का रूप ले लेता है। यह वह युद्ध है, जहाँ तलवार की जगह कलम है, और बंदूक की जगह प्रपत्र। यह संघर्ष सत्य को उजागर करने का है। यह याद दिलाने का है कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है। यह एक चेतावनी है कि सत्ता की कुर्सी करदाता की दी हुई है, और वही उसका स्वामी है। और जब तक देश में एक भी नागरिक अपने प्रश्नों के साथ अडिग खड़ा रहेगा, तब तक सूचना का अधिकार केवल अधिनियम नहीं, एक जीवंत लोकतांत्रिक आत्मा बना रहेगा। यह हर बार सत्ता को यह याद दिलाता रहेगा कि उनकी जवाबदेही जनता के प्रति है, और वे सेवक हैं, शासक नहीं।

नोट: संपादकीय पेज पर प्रकाशित किसी भी लेख से संपादक का सहमत होना आवश्यक नही है ये लेखक के अपने विचार है।

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