जननायक से अपराधी तक: वांगचुक के साथ सत्ता का सलूक

आदेश प्रधान, एडवोकेट। लद्दाख की बर्फीली वादियों से उठने वाली एक आवाज़ आज पूरे देश का ध्यान खींच रही है। यह आवाज़ है सोनम वांगचुक की, वही वांगचुक जिनकी पहचान कभी शिक्षा सुधारक, पर्यावरण योद्धा और नवाचारक के रूप में की जाती थी। लेकिन आज वही शख्स सत्ता के दबाव और प्रशासनिक शिकंजे में फंसा हुआ है। विडंबना यह है कि जिसे लोग जननायक मानते हैं, वही सरकार की नीतियों में बाधक समझा जाने लगा है। यह केवल एक व्यक्ति के साथ अन्याय की कहानी नहीं है, बल्कि उस पूरे लोकतांत्रिक ढांचे की पोल खोलती है जो जनता की आवाज़ सुनने का दावा करता है।
सोनम वांगचुक ने अपना जीवन केवल व्यक्तिगत सफलता या पहचान तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने लद्दाख की दुर्गम परिस्थितियों में शिक्षा के नए रास्ते खोले। “स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख” (SECMOL) की स्थापना से लेकर आइस स्तूप जैसी तकनीक तक, उन्होंने बार-बार यह साबित किया कि विकास केवल दिल्ली और मुंबई के दफ्तरों से नहीं बल्कि जमीनी संघर्ष और स्थानीय समझ से पैदा होता है। लेकिन आज वही वांगचुक सरकार की आँख की किरकिरी बने हुए हैं क्योंकि उनकी मांगें सत्ता और कॉरपोरेट दोनों को असहज करती हैं।
लद्दाख के लोग लंबे समय से छठी अनुसूची के अंतर्गत संवैधानिक संरक्षण की मांग कर रहे हैं। यह मांग न तो गैरकानूनी है और न ही असंगत। बल्कि यह आदिवासी और पहाड़ी क्षेत्रों के लिए भारतीय संविधान द्वारा पहले से ही उपलब्ध प्रावधान है। वांगचुक ने केवल इस मांग को मुखर किया और जनता को संगठित किया। उन्होंने चेतावनी दी कि यदि लद्दाख को संरक्षण नहीं मिला तो यहाँ की संस्कृति, रोज़गार और पर्यावरण सबकुछ खतरे में पड़ जाएगा। यही वह बिंदु था जहाँ उनकी संघर्ष यात्रा सत्ता से टकरा गई। सरकार ने विकास के नाम पर लद्दाख के संसाधनों को कॉरपोरेट घरानों के हवाले करना शुरू किया और जब वांगचुक ने इसके खिलाफ आवाज़ उठाई तो उन पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाई गईं।
वांगचुक का अपराध यह नहीं कि उन्होंने कोई हिंसा की या व्यवस्था के खिलाफ हथियार उठाए। उनका अपराध यह है कि उन्होंने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए सच्चाई को सामने रखा। उन्होंने बार-बार चेताया कि हिमालय केवल लद्दाख का नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत का जीवनदायिनी है। यहाँ के ग्लेशियर गंगा, यमुना और सिंधु जैसी नदियों का आधार हैं। यदि इन्हें अंधाधुंध खनन, निर्माण और औद्योगिक परियोजनाओं से नष्ट कर दिया गया तो आने वाली पीढ़ियों को पानी के लिए तरसना पड़ेगा।
उनकी यह चेतावनी किसी राजनीतिक नारेबाज़ी का हिस्सा नहीं थी, बल्कि वैज्ञानिक तथ्यों और धरातल पर दिख रही वास्तविकताओं से उपजी थी। लेकिन सत्ता की मशीनरी को यह स्वीकार नहीं था क्योंकि यह चेतावनी उनके विकास मॉडल पर प्रश्नचिह्न लगाती थी।
आज स्थिति यह है कि सोनम वांगचुक को प्रशासनिक पाबंदियों में जकड़ा जा रहा है। उनके आंदोलनों को दबाने की कोशिश की जा रही है। मीडिया में उनकी आवाज़ को कमतर दिखाने या पूरी तरह अनसुना करने की रणनीति अपनाई जा रही है। जो आंदोलन गांधीवादी तरीकों पर आधारित है, उसे भी खतरे के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है। यदि शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से अपनी बात रखने वाले लोगों को अपराधी बना दिया जाएगा तो फिर लोकतंत्र और तानाशाही में फर्क ही क्या रह जाएगा?
दरअसल, यह नाइंसाफी केवल वांगचुक के साथ नहीं हो रही है। यह अन्याय उस पूरी जनता के साथ हो रहा है जो लद्दाख की पहचान को बचाना चाहती है। जिन लोगों ने अपने जीवन को कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में ढाल लिया, जिन्होंने सीमा सुरक्षा में हमेशा देश के साथ खड़े रहकर बलिदान दिए, उनकी आवाज़ आज नकार दी जा रही है। जब लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, तब लोगों ने इसे एक बड़ी उपलब्धि माना था। लेकिन जल्द ही यह सपना टूट गया क्योंकि न तो उन्हें विधानमंडल मिला, न ही संवैधानिक सुरक्षा। उनकी जमीनें, चरागाह और संसाधन धीरे-धीरे बड़े उद्योगों के हवाले किए जाने लगे।
वांगचुक की सबसे बड़ी ताकत यह है कि उन्होंने हमेशा हिंसा से परे रहते हुए गांधी और बौद्ध विचारधारा को अपनाया। उनके आंदोलन में न तो तोड़फोड़ होती है और न ही नफरत की राजनीति। वह अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए सरकार को आईना दिखाते हैं। शायद यही बात सत्ता को और भी अधिक चुभती है। क्योंकि जब कोई हिंसा करता है तो उसे आसानी से देशद्रोही या अराजक कहकर बदनाम किया जा सकता है। लेकिन जब कोई व्यक्ति शांति से तर्क और विज्ञान के आधार पर सवाल उठाता है, तो उसका सामना करना सत्ता के लिए कठिन हो जाता है। ऐसे में अक्सर उस व्यक्ति को चुप कराने के लिए प्रशासनिक हथकंडे अपनाए जाते हैं।
लद्दाख की भौगोलिक और सांस्कृतिक परिस्थितियाँ इस नाइंसाफी को और भी गंभीर बना देती हैं। यहाँ का पर्यावरण बहुत नाजुक है। हिमालयी क्षेत्र में हल्की सी छेड़छाड़ भी बड़े संकट को जन्म देती है। ग्लोबल वार्मिंग पहले से ही ग्लेशियरों को पिघला रही है। यदि सरकार और कॉरपोरेट मिलकर यहाँ बड़े पैमाने पर खनन और निर्माण करेंगे तो आने वाले दशकों में पानी का संकट असहनीय हो जाएगा। इस पर बात करना कोई अपराध नहीं बल्कि हर नागरिक का कर्तव्य है। लेकिन विडंबना यह है कि जो लोग इस कर्तव्य को निभा रहे हैं, वही आज अपराधी बना दिए गए हैं।
स्थिति की विडंबना यहाँ तक पहुँच चुकी है कि पर्यावरण संरक्षण और हर प्रकार से जनता के हितों की बात करने वाले व्यक्ति को देशद्रोही बताया जा रहा है। सोनम वांगचुक पर यहाँ तक आरोप लगाए जा रहे हैं कि उनका पाकिस्तान से कनेक्शन है। यह न केवल हास्यास्पद है बल्कि लोकतांत्रिक विमर्श का स्तर गिराने वाली सोच का प्रतीक भी है। जब सत्ता के पास ठोस जवाब नहीं होते तो वह असहमति जताने वालों को बाहरी दुश्मनों का एजेंट बताकर बदनाम करने लगती है। यह तरीका जनता को गुमराह करने और असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की साज़िश के अलावा कुछ नहीं है।
यह पूरा प्रसंग हमें सोचने पर मजबूर करता है कि लोकतंत्र की परिभाषा क्या रह गई है। क्या लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव जीतना और सत्ता में बने रहना है? क्या लोकतंत्र का मतलब यह है कि जनता की आवाज़ केवल पांच साल में एक बार सुनी जाएगी और बाकी समय दबाई जाएगी? यदि लोकतंत्र वास्तव में जनता का शासन है तो फिर वांगचुक जैसे लोगों को डराने और दबाने की बजाय उनका सम्मान होना चाहिए।
सोनम वांगचुक की कहानी हमें यह भी सिखाती है कि जननायक वही होता है जो सत्ता के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत रखता है। उनकी लोकप्रियता किसी पद या राजनीतिक दल से नहीं, बल्कि जनता के विश्वास से आती है। यही वजह है कि जब सरकार उन्हें चुप कराने की कोशिश करती है, तो लोग और अधिक एकजुट होकर उनके साथ खड़े हो जाते हैं। वांगचुक ने यह दिखा दिया है कि सच्चाई और नैतिकता के बल पर भी आंदोलन खड़े किए जा सकते हैं।
आज आवश्यकता है कि पूरे देश की जनता यह समझे कि यह लड़ाई केवल लद्दाख या वांगचुक की नहीं है। यह लड़ाई उस सोच की है जो विकास को केवल धन कमाने और संसाधनों की लूट में देखती है। यह लड़ाई उस व्यवस्था के खिलाफ है जो लोकतांत्रिक आवाज़ों को कुचलने की कोशिश करती है। यदि आज वांगचुक को चुप कराया जाएगा तो कल यही अन्याय किसी और क्षेत्र, किसी और आंदोलन और किसी और व्यक्ति के साथ दोहराया जाएगा।
इतिहास गवाह है कि जब भी सत्ता ने सच्चाई बोलने वालों को दबाया है, तब-तब वह सत्ता कमजोर साबित हुई है। चाहे वह महात्मा गांधी हों, भगत सिंह हों या जयप्रकाश नारायण, हर दौर में सत्ता ने उन्हें अपराधी ठहराने की कोशिश की। लेकिन समय ने साबित किया कि असली अपराधी सत्ता की वह सोच थी जो जनहित की आवाज़ को सहन नहीं कर सकी। आज वांगचुक के साथ जो कुछ हो रहा है, वही इतिहास दोहरा रहा है।
जननायक से अपराधी तक का यह सफर केवल सत्ता की संकीर्ण मानसिकता का परिणाम है। सोनम वांगचुक अपराधी नहीं हैं, वह उस विवेक और चेतना के प्रतीक हैं जो हर लोकतंत्र के लिए जरूरी है। यदि सरकारें सचमुच जनता के हित में काम करना चाहती हैं तो उन्हें वांगचुक जैसे लोगों को दुश्मन नहीं, बल्कि सहयोगी मानना होगा।
अंततः, यह सवाल हर जागरूक नागरिक से है कि हम किस तरह का भविष्य चाहते हैं। क्या हम ऐसा भविष्य चाहते हैं जहाँ पर्यावरण नष्ट हो, जनता की आवाज़ दबा दी जाए और कॉरपोरेट मुनाफे को सर्वोपरि रखा जाए? या फिर हम ऐसा भविष्य चाहते हैं जहाँ लोकतंत्र सचमुच जनता के लिए हो, जहाँ पर्यावरण की रक्षा हो और जहाँ सोनम वांगचुक जैसे जननायक अपराधी नहीं बल्कि आदर्श माने जाएँ? निर्णय हम सबको करना है।
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