भ्रष्टाचार व्यवस्था के खिलाफ , क्यो शिक्षक बने क्रांतिकारी?

आदेश प्रधान एडवोकेट | दिल्ली की सड़कों पर जब आवाज़ें गूंजती हैं तो वे केवल नारों की प्रतिध्वनि नहीं होतीं, वे एक टूटते हुए भरोसे की पुकार होती हैं। एसएससी की परीक्षाओं को लेकर चल रहे इस आंदोलन में जब छात्रों के साथ उनकी शिक्षिका नीतू सिंह और शिक्षक राकेश यादव को गिरफ्तार किया गया, तो यह केवल एक कानूनी कार्रवाई नहीं थी –यह लोकतंत्र की आत्मा पर लगा हुआ एक तमाचा था। एक ऐसा तमाचा, जिसकी गूंज आज हर संवेदनशील दिल को झकझोर रही है।
जब एक शिक्षक अपने छात्रों के साथ सड़क पर उतर आता है, जब वह छात्रों के भविष्य को अपनी प्रतिष्ठा से ऊपर रख देता है, जब वह उनकी लड़ाई को अपना संकल्प बना लेता है – तब वह केवल एक शिक्षक नहीं रह जाता, तब वह समाज का विवेक, संविधान का रक्षक, और आशा का ध्वजवाहक बन जाता है।
लेकिन अफ़सोस, इस देश में जहां प्रोफेसर विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में सरकार ओर कुलपति के चाटुकार बनकर बैठे हैं – वही शिक्षक जो छात्रों को मौलिक अधिकार तो पढ़ाते हैं, पर जब वे अधिकार रौंदे जाते हैं, तब वे चुप्पी ओढ़ लेते हैं। वे शिक्षार्थियों को संघर्ष की जगह संयम का पाठ पढ़ाते हैं, आंदोलन की जगह मौन की शिक्षा देते हैं – ताकि उन्हें कोई प्रशासनिक पद मिल सके, कोई संसाधन हाथ लगे, या किसी ‘कमेटी’ में उन्हें जगह मिल जाए। या किसी मूल्यांकन केंद्र का इंचार्ज बना दिया जाए । या महाविद्यालय में सम्बद्धता के पैनल में भेज दिया जाए । यही अत्याधिक धन की इच्छा प्रोफेसर वर्ग से उसकी आज़ादी नैतिकता उसका स्वाभिमान ईमानदारी तक छीन लेती है ।
पर दिल्ली की सड़कों पर जो हुआ, वह इस चाटुकारिता की लाश पर खड़ी हुई एक नयी परंपरा का आरंभ है।
नीतू सिंह और राकेश यादव, दो ऐसे नाम जिन्होंने ‘शिक्षक’ शब्द को फिर से पवित्र कर दिया है। ये वही लोग हैं जिन्होंने छात्रों को सिर्फ ‘सिलेबस’ नहीं पढ़ाया, बल्कि उन्हें लड़ने, सवाल पूछने, और अपने अधिकारों के लिए खड़ा होने की तालीम दी। और यही कारण है कि सरकार उन्हें सहन नहीं कर पाई। कक्षा में क्रांति की बातें करने वाले शिक्षक, जब कक्षा से निकलकर सड़कों पर सच बोलने लगे, तो सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया – ताकि बाकी प्रोफेसर डरे रहें, और बाकी छात्र थक जाएं। पर क्या छात्र थक गए? क्या शिक्षक डर गए? नहीं। यही से क्रांति का आगाज होता है ।
यह आंदोलन किसी परीक्षा में धांधली भर की शिकायत नहीं है। यह एक पूरी पीढ़ी की चीख है, जिसे बार-बार अस्वीकार किया गया, परीक्षा पेपर लीक कर दिए गए, भर्ती प्रक्रिया में घोटाले हुए, और जब उन्होंने इसका विरोध किया, तो उनके पोस्टर फाड़ दिए गए, उन्हें घसीटा गया, उनके शिक्षकों को पुलिस जीप में भरकर गिरफ्तार किया गया।
कभी सोचा है, क्या गुज़रती होगी उन छात्रों पर, जब वे अपने ही शिक्षक को पुलिस की गाड़ियों में जबर्दस्ती पकड़कर गिरफ्तार किया देखते होंगे?
क्या महसूस करता होगा एक नौजवान, जब उसकी शिक्षिका – जो उसे “अपने पैरों पर खड़ा होना सिखा रही थी” – खुद नारी सुरक्षा के नाम पर बनी सरकार के हाथों गिरफ़्तार कर ली जाती है? और क्या कहते होंगे वे प्रोफेसर, जो आज भी वातानुकूलित कार्यालयों में बैठकर ‘बुद्धिजीविता’ की चाय पीते हुए छात्रों को आंदोलन से दूर रहने की सलाह देते हैं?
शायद यही वो प्रोफेसर हैं, जिनकी कायरता ने हजारों विद्यार्थियों को आत्महत्या की ओर धकेला। यही वे लोग हैं जो कहते हैं – “अब क्या फायदा लड़ने का, सिस्टम तो ऐसा ही है।” लेकिन नीतू सिंह और राकेश यादव ओर अन्य शिक्षकों ने इस “सिस्टम” ओर सरकार को चुनौती दी है ओर सड़क का रास्ता चुना है । बिहार में भी खान सर ने पूरा सिस्टम को चुनौती दी ओर छात्रों के आंदोलन में उनके साथ खड़े नजर आए ।
उन्होंने बताया कि शिक्षक का काम सिर्फ नौकरी तक सीमित नहीं होता – वह समाज का निर्माण करता है। वह अपने छात्रों की पीड़ा को समझता है, उसमें हिस्सेदारी करता है, और जब ज़रूरत हो, तो उनके साथ सड़क पर उतरकर सरकार से आंख मिलाने की हिम्मत भी दिखाता है।
और यही हिम्मत आज भारत को चाहिए – किताबों में नहीं, असल ज़िंदगी में। यह आंदोलन सिर्फ परीक्षा की प्रक्रिया में पारदर्शिता की मांग नहीं है, यह भारत के युवा मन की आत्मा की मांग है। यह मांग है कि अब उनके भविष्य को कोई ठेकेदार कंपनी तय न करे – वह कंपनी जिसके खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं, जिसने परीक्षा प्रणाली को मुनाफाखोरी का औजार बना दिया है, और जो छात्रों के सपनों को ‘बोली’ में बदल देती है।
यह आंदोलन पूछता है – क्या नौकरी पाना इतना महंगा हो गया है कि उसकी कीमत आंदोलन, गिरफ्तारी, और अपमान से चुकानी पड़े? और इसी सवाल में छिपा है आज का सबसे बड़ा सत्य। कि भारत का युवा अब झुकने को तैयार नहीं है। कि शिक्षक अब चुप रहने को तैयार नहीं हैं।
कि प्रोफेसर जो चाटुकार बने हुए हैं, उन्हें अब आत्ममंथन करना होगा – क्या वे इतिहास में अपने लिए “सरकारी गुलामीयत” की छवि चाहते हैं, या “शिक्षक” की गरिमा?
जब-जब इतिहास रचा गया है, छात्रों ने उसकी नींव रखी है – और जब शिक्षक उनके साथ खड़े हुए, तब क्रांति ने अपना रंग बदला है। आज नीतू सिंह और राकेश यादव ओर अन्य शिक्षको की गिरफ्तारी ने हमें यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या हम सच में एक लोकतंत्र प्रणाली में हैं? क्या अब छात्रों को प्रश्न पूछने का अधिकार नहीं? क्या शिक्षक केवल वे हैं जो सत्ता की सेवा करें, या वे हैं जो बच्चों के भविष्य की रक्षा करें? आज भारत अपने असली शिक्षकों को पहचान रहा है। वे न तो विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, न किसी उच्च समिति के सदस्य। वे वे लोग हैं जो छात्रों के साथ लाठी खाते हैं, हिरासत में लिए जाते हैं, और फिर भी सवाल उठाना नहीं छोड़ते।
प्रलय और निर्माण दोनों शिक्षक की गोद में होता है । शिक्षक न केवल ज्ञान देता है, बल्कि एक पूरी पीढ़ी की सोच, संस्कार और दिशा तय करता है। यदि शिक्षक अपने दायित्व का निर्वहन ईमानदारी, संवेदनशीलता और विवेक के साथ करता है, तो वह एक सशक्त, नैतिक और रचनात्मक समाज का निर्माण कर सकता है। वहीं, अगर वही शिक्षक अज्ञानता, भेदभाव, चाटुकारिता या अन्य नकारात्मक प्रवृत्तियों को बढ़ावा देता है, तो वही समाज पतन और प्रलय की ओर अग्रसर हो सकता है।
इतिहास गवाह है कि महात्मा गांधी, अब्दुल कलाम, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे व्यक्तित्वों के पीछे उनके प्रेरणादायी गुरु रहे हैं, शिक्षक की भूमिका केवल पाठ्यक्रम पूरा करने तक सीमित नहीं, बल्कि वह चरित्र निर्माण, विचार प्रेरणा और समाज की दिशा तय करने वाली धुरी होता है।
इसलिए कहा गया है — शिक्षक के हाथ में सिर्फ किताब नहीं होती, बल्कि एक समूचा राष्ट्र होता है। वह चाहे तो स्वर्ग बना दे, और चाहे तो विनाश भी कर सकता है।
क्योंकि जब शिक्षक जाग जाता है, तो केवल सरकार ही नहीं, पूरी सामाजिक व्यवस्था को जवाब देना पड़ता है। और जब छात्र अपने शिक्षक को सलाम करता है – हथकड़ी में भी – तो वह प्रण लेता है कि वह केवल एक ‘नौकरी’ नहीं, एक ‘न्यायपूर्ण देश’ बनाएगा। दिल्ली की सड़कों पर केवल आंदोलन नहीं हो रहा, वहां “भारत के लोकतंत्र की आत्मा” फिर से सांस ले रही है। आंदोलन के रूप में क्रांति का आगाज होता है ।
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