शिक्षक दिवस: आदर्श की ज्योति से अवसरवाद की अंधेरी गलियों तक

आदेश प्रधान एडवोकेट | भारत में शिक्षक का स्थान सदैव सर्वोपरि रहा है। यहाँ गुरु को केवल शिक्षक नहीं माना गया, बल्कि देवता का दर्जा दिया गया क्योंकि वही जीवन जीने का मार्ग दिखाता था। शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी या पदवी हासिल करना नहीं था, बल्कि जीवन को अर्थपूर्ण, गुणवान और आत्मा को शुद्ध करना था। प्राचीन गुरुकुलों में शिक्षक तपस्वी की तरह होते थे, जो शिष्य से भारी शुल्क नहीं लेते थे। गुरुदक्षिणा केवल तब ली जाती थी जब शिष्य अपने सम्मान और आभार स्वरूप कुछ अर्पित करता। उस समय शिक्षक का लक्ष्य धन संचय नहीं होता था, बल्कि समाज को योग्य और जागरूक नागरिक देना होता था। यही कारण था कि नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों की कीर्ति दूर-दूर तक फैली। वहाँ के आचार्य विश्व के विद्वानों को आकर्षित करते थे और ज्ञान का आदान-प्रदान केवल किताबों तक सीमित नहीं रहता था, बल्कि जीवन और समाज को दिशा देने वाला होता था। गुरु और शिष्य का रिश्ता विश्वास और निष्ठा पर आधारित था। शिष्य अपने गुरु को पिता से भी ऊँचा स्थान देता और गुरु अपने शिष्य को केवल विद्या ही नहीं, बल्कि जीवन के मूल्यों का पाठ पढ़ाता। शिक्षा केवल पाठ्यपुस्तक तक सीमित नहीं रहती थी; यह समाज के लिए जिम्मेदारी, नैतिकता और स्वतंत्र सोच की मशाल बनती थी।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय भी शिक्षक का योगदान अद्वितीय रहा। गांधीजी ने शिक्षा को स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता से जोड़ा और माना कि शिक्षा तभी सार्थक है जब वह व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाए। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शांति निकेतन की स्थापना कर शिक्षा को मानवता और प्रकृति से जोड़ा और बताया कि शिक्षा का मतलब केवल परीक्षा पास करना नहीं, बल्कि इंसान बनना है। आचार्य नरेन्द्र देव जैसे विद्वानों ने शिक्षा को सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में स्थापित किया। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वयं इस आदर्श का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके जन्मदिन पर जब छात्रों ने उनसे जश्न मनाने की इच्छा जताई तो उन्होंने कहा कि यदि आप मुझे सम्मानित करना चाहते हैं तो इसे शिक्षक दिवस के रूप में मनाइए। उनका मानना था कि सच्चा शिक्षक वही है जो विद्यार्थियों को सोचने और प्रश्न करने की प्रेरणा दे। यही कारण है कि शिक्षक दिवस की नींव उनके जन्मदिन पर रखी गई। यह सब याद करते हुए गर्व होता है कि भारत ने ऐसे शिक्षकों को जन्म दिया जिन्होंने पूरी दुनिया को रोशनी दी। शिक्षक दिवस केवल एक औपचारिक उत्सव नहीं, बल्कि आत्मा की गरिमा और शिक्षा की पवित्रता का प्रतीक था।
लेकिन आज की स्थिति पर नजर डालें तो यह गौरवपूर्ण छवि धीरे-धीरे धुंधली पड़ती दिखाई देती है। समय की धूल ने शिक्षक की गरिमा को ढक दिया है। अब वह आदर्शवादी गुरु कम दिखाई देते हैं और अवसरवादी, सत्ता-लोलुप चेहरा सामने आ रहा है। विश्वविद्यालय और कॉलेजों के गलियारों में कई प्राध्यापक छात्र की पढ़ाई या शोध से ज्यादा कुलपति की कृपा पर ध्यान केंद्रित करते हैं। उनका दिन-प्रतिदिन का प्रयास यही होता है कि वे किसी समिति या निरीक्षण पैनल में शामिल हो जाएँ। शिक्षा अब ज्ञान का उत्सव नहीं रह गई है, बल्कि सत्ता और अवसर का खेल बन चुकी है।
आज कई विश्वविद्यालयों में यह आम दृश्य है कि प्रोफेसर कुलपति के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं, उनके हर आदेश का पालन करते हैं और हर निर्णय का समर्थन करते हैं। कुछ प्रोफेसरों का पूरा करियर इसी चापलूसी पर आधारित होता है। वे पढ़ाई और शोध में चाहे कुछ न कर पाएँ, लेकिन कुलपति की खुशामद करके हर जगह अपना नाम दर्ज करवा लेते हैं। इसके बदले में उन्हें इनाम मिलता है—समितियों में सदस्यता, निरीक्षण पैनलों में जगह, विशेष योजनाओं का लाभ। धीरे-धीरे यही अवसरवादी लोग विश्वविद्यालय प्रशासन और राजनीति में हावी हो जाते हैं और जिन शिक्षकों का काम छात्रों को पढ़ाना और उन्हें दिशा देना होता है, वे अपनी ऊर्जा सत्ता के गलियारों में खर्च कर देते हैं।
इस पूरी व्यवस्था का सबसे बड़ा शिकार छात्र होते हैं। जो शिक्षक उनके लिए मार्गदर्शक होना चाहिए, वही उन्हें चुप कराता है। यदि कोई छात्र सवाल करता है तो उसे विद्रोही घोषित कर दिया जाता है। शोधार्थियों से निजी काम करवाना आम हो गया है। कोई प्रोफेसर उनसे घरेलू सामान उठवाता है, कोई अपनी गाड़ी चलवाता है। कई बार शोध पत्र और किताबें छात्र लिखते हैं और प्रोफेसर अपने नाम से प्रकाशित करा लेते हैं। छात्र सीख जाते हैं कि विश्वविद्यालय में आगे बढ़ने का रास्ता ईमानदारी और विद्वत्ता नहीं, बल्कि चुप्पी और आज्ञापालन है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें शिक्षा की आत्मा दम तोड़ती है और गुरु-शिष्य संबंध का पवित्र स्वरूप उपहास का विषय बन जाता है।
इस विरोधाभास को देखकर मन विचलित हो उठता है। एक ओर हम राधाकृष्णन और प्राचीन आचार्यों की आदर्श परंपरा पर गर्व करते हैं, दूसरी ओर अवसरवादी प्रोफेसरों की हरकतें हमें शर्मसार करती हैं। शिक्षक दिवस के मंच पर आदर्शों की बातें होती हैं, भाषण दिए जाते हैं, लेकिन अगले ही दिन वही शिक्षक छात्रों की स्वतंत्र आवाज़ दबाने और कुलपति के दरबार में हाज़िरी लगाने में व्यस्त हो जाते हैं। आज शिक्षक की पहचान विद्वत्ता या सादगी से नहीं, बल्कि वेतन, सुविधाओं और सत्ता से तय होती है। पहले शिक्षक का सम्मान उसके त्याग और सादगी में था, अब उसकी पहचान अवसर और प्रभाव में है। यह केवल विडंबना नहीं, बल्कि शिक्षा की आत्मा का अपमान है।
कुछ प्रोफेसर विशेष समितियों और योजनाओं में नाम दर्ज कराने के लिए दिनभर कुलपति के कार्यालय के पास मंडराते रहते हैं। उनका मुख्य काम यही होता है कि कैसे वे किसी कमिटी में अपना नाम रखवाएँ या कॉलेज पैनल में भेजे जाएँ। यह गुलामी का खेल उन्हें खुशी देता है और बदले में इनाम भी मिलता है। शिक्षा अब केवल व्यापार और अवसरवाद का माध्यम बन चुकी है। इस कारण आज का शिक्षक छात्रों की प्रेरणा नहीं बनता, बल्कि उनके लिए डर का प्रतीक बन गया है। शिक्षक की भाषा का स्तर गिरता जा रहा है। किसी ने सवाल पूछ लिया तो उसे विद्रोही घोषित कर दिया जाता है। कई शिक्षकों की भाषा अब मधुर और प्रेरणादायी नहीं रह गई, बल्कि तू-तड़क और अहंकार से भरी रहती है।
फिर भी यह कहना उचित नहीं होगा कि पूरी तस्वीर काली हो चुकी है। आज भी कुछ शिक्षक हैं जो अपने पेशे को पुकार मानते हैं। वे विद्यार्थियों को केवल पढ़ाते ही नहीं, बल्कि उन्हें इंसान बनने का साहस भी देते हैं। वे स्वतंत्र सोच और ज्ञान के प्रति निष्ठा बनाए रखते हैं। ऐसे शिक्षक ही विश्वविद्यालयों में दीपक की तरह हैं और उन्हें देखकर छात्रों को विश्वास मिलता है कि शिक्षा का दीप अभी भी जल रहा है। इन शिक्षकों के कारण ही विश्वविद्यालय पूरी तरह अवसरवाद की अंधेरी गलियों में नहीं डूब पाए हैं।
शिक्षक दिवस हमें केवल औपचारिक बधाई और भाषण का दिन नहीं होना चाहिए, बल्कि यह आत्ममंथन का अवसर होना चाहिए। हमें यह सोचने की आवश्यकता है कि हम किसे आदर्श शिक्षक मानते हैं—वह जो समाज का दीपक है या वह जो सत्ता और अवसर के गुलाम हैं। अगर शिक्षा को पुनर्जीवित करना है, तो शिक्षक को फिर से तपस्या और पवित्रता से जोड़ना होगा। अन्यथा शिक्षक दिवस केवल औपचारिकता बनकर रह जाएगा—माला पहनाना, भाषण देना और फिर अवसरवाद में लौट जाना। आज का शिक्षक दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि आदर्श और अवसरवाद के बीच लड़ाई जारी है। हमें तय करना होगा कि हम किसे सम्मान देंगे। केवल मंच पर भाषण और औपचारिक समारोह से शिक्षक का सम्मान नहीं किया जा सकता। असली सम्मान तब होगा जब शिक्षक छात्रों की आवाज़ सुनेगा, कुलपति की गुलामी छोड़कर ज्ञान की साधना करेगा और शिक्षा फिर से तपस्या बनेगी, व्यापार नहीं।
शिक्षा किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है। यदि शिक्षक आदर्शवादी और निष्ठावान होंगे तो आने वाली पीढ़ी समाज को रोशनी देगी। यदि शिक्षक अवसरवादी और सत्ता-लोलुप होंगे तो समाज अंधकार की ओर बढ़ेगा। आज ज़रूरत इस बात की है कि हम फिर से अपने शिक्षकों से वही तपस्या और निष्ठा की उम्मीद करें, जो नालंदा और तक्षशिला के आचार्यों से जुड़ी थी। शिक्षक दिवस तभी सार्थक होगा जब यह हमें केवल अतीत का गौरव याद न दिलाए, बल्कि वर्तमान की कुरूपता को बदलने का संकल्प भी दे। सच्चा शिक्षक वही है जो दीपक जलाए, न कि अवसरवाद की आंधी में अपना साया ढूँढे।
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