एजेंसी, नई दिल्ली। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर अपना फैसला सुनाया। पांच जजों की बेंच ने गवर्नर और प्रेसिडेंट के लिए बिल पर कार्रवाई करने की टाइमलाइन तय करने के प्रेसिडेंशियल रेफरेंस फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तक करने का कोई अधिकार नहीं हैं। दरअसल, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने पूछा था कि क्या कोई संवैधानिक अदालत राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए समयसीमा तय कर सकती है।
पांच पीठों की बेंच ने कहा कि गवर्नर द्वारा बिलों को मंजूरी देने के लिए समय सीमा तय नहीं की जा सकती। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि डीम्ड असेंट का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के सिद्धांत के खिलाफ है। उखक बी आर गवई ने कहा कि प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर यह एकमत से लिया गया फैसला है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि गवर्नर बिल को हमेशा के लिए रोककर नहीं रख सकते। अगर गवर्नर बिल पर मंजूरी नहीं दे रहे हैं, तो उसे जरूरी तौर पर विधानमंडल को वापस भेजना होगा। भारत के सहयोगी संघवाद में गवर्नर को बिल पर हाउस के साथ मतभेद दूर करने के लिए बातचीत का तरीका अपनाना चाहिए, न कि रुकावट डालने वाली प्रक्रिया अपनानी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत निर्धारित प्रक्रिया का पालन किए बिना रोक कर रखते हैं तो यह संघवाद की भावना के खिलाफ होगा।
8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु विधानसभा से पास हुए बिलों पर फैसला देते हुए पहली बार यह कहा था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल की तरफ से भेजे गए किसी भी बिल पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। यह फैसला अपने आप में ऐतिहासिक माना गया क्योंकि इससे पहले ऐसी कोई समय सीमा तय नहीं थी।