अदालत ने कहा, शक कितना भी गहरा हो सबूत नहीं बन सकता
एजेंसी,नई दिल्ली– मौत की सजा पाए एक शख्स को सुप्रीम कोर्ट ने 12 साल जेल काटने के बाद बरी कर दिया। उस पर अपनी पत्नी, मां और दो साल की बच्ची की हत्या का आरोप था। वो 12 साल से जेल में बंद था। इन 12 सालों में से 8 साल तो उसने फांसी की सजा का डर झेला। 2012 में पुणे के इस तिहरे हत्याकांड में सुप्रीम कोर्ट ने सबूतों के अभाव में उसे बरी कर दिया और रिहा करने का आदेश दिया। कोर्ट ने पाया उसके अपराध को साबित करने के लिए कोई निर्णायक सबूत नहीं था।
जस्टिस बीआर गवई, प्रशांत कुमार मिश्रा और केवी विश्वनाथन की पीठ ने निचली अदालत और बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया। जहां से उसे फांसी की सजा सुनाई गई थी। पीठ ने सभी सबूतों की जांच करने के बाद पाया कि वे उसे दोषी ठहराने के लिए काफी नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ शक के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जस्टिस गवई ने फैसले में कहा कि यह तय कानून है कि शक, चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो, सबूत की जगह नहीं ले सकता।
जब तक किसी आरोपी को दोषी साबित न कर दिया जाए, उसे निर्दोष माना जाता है। निचली अदालत और बॉम्बे हाई कोर्ट ने उसे एक पड़ोसी के बयान के आधार पर दोषी ठहराया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह बयान कई विरोधाभासों से भरा है और परिस्थिति जन्य साक्ष्य भी उसके खिलाफ कोई ठोस नतीजा नहीं निकालते।